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________________ ७६ गो० कर्मकाण्डे मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानंगळोळ यथासंख्यमागि। बंधाः प्रकृतिबंधंगळ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ ११७ । सासादनदोळ १०१ मिश्रनोळ, ७४ । असंयतनोळ ७७। देशवतियोळ ६७ । प्रमत्तसंयतनोळ, ६३, अप्रमत्तसंयतनोळ ५९, अपूर्वकरणनोळ ५८। अनिवृत्तिकरणनोळ २२, सूक्ष्मसांपरायनोळ १७ । उपशांतकषायनोळु १ । क्षीणकषायनोळु १। सयोगकेवलियोळोदु १ । अयोगकेवलियो शून्यं । अनंतरमबंधप्रकृतिगळं पेळदपरु : तिय उणवीसं छत्तियतालं तेवण्ण सत्तवण्णं च । इगिदुरासट्ठी बिरहिय तियसय उणवीससय त्ति वीससयं ॥१०४।। तिस्त्रश्चैकानविंशतिः षट्च्यधिकचत्वारिंशत्त्रिपंचाशत्सप्तपंचाशत् एकद्विकषष्टिविरहित१० व्यधिकशतमेकानविंशत्युत्तरशतत्रिविंशत्युत्तरशतं ॥ ___अभेदविवक्षया बन्धो विंशत्यग्रशतम् । तत्र मिथ्यादृष्टौ सप्तदशोत्तरशतमेव । 'सम्मेव तित्यबंधो आहारदुर्ग पमादरहिदेसु' इति तत्त्रयस्य बन्धाभावात् । सासादने एकोत्तरशतं मिथ्यादृष्टिव्युच्छित्तेरुपर्य्यबन्धात् । मित्रे चतुःसप्ततिः सासादनव्युच्छित्तेर्नु मुरायुषोश्चाबन्धे प्रक्षेपात् । असंयते सप्तसप्ततिः नृदेवायुस्तीर्थानाम बन्धाद्बन्धे निक्षेपात् । देशसंयते सप्तषष्टि;, असंयतछेदस्याभावात् । प्रमत्ते त्रिषष्टिः देशसंयतव्युच्छित्तेर१५ भावात् । अप्रमत्ते एकान्नषष्टिः प्रमत्तव्युच्छित्तेरभावादाहारकद्वयस्य च बन्धे पतनात् । अपूर्वकरणेऽष्टपञ्चाशत् देवायुषोऽप्रमत्ते छेदात् । अनिवृत्तिकरणे द्वाविंशतिः षट्त्रिंशतो बन्धाभावात् । सूक्ष्मसाम्पराये सप्तदश पञ्चानामनिवृत्तिकरणे व्युच्छेदात् । उपशान्त-क्षीणकषाययोः सयोगे च एकैका अयोगे शून्यम् ॥१०३।। अभेद विवक्षासे बन्ध प्रकृतियाँ एक सौ बीस हैं। उनमें से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें एक सौ सतरह ही बंधती हैं क्योंकि कहा है कि 'तीर्थकरका बन्ध सम्यग्दृष्टिके ही होता है २० और आहारकद्विकका बन्ध प्रमादरहितके होता है।' इस प्रकार वहाँ तीन प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। सासादनमें एक सौ एक बँधती हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छिन्न सोलह प्रकृतियाँ ऊपरके गुणस्थानोंमें अबन्धरूप होती हैं। मिश्रमें चौहत्तर बँधती हैं क्योंकि सासादनमें व्युच्छिन्न पच्चीस प्रकृतियाँ तथा मनुष्यायु और देवायुका बन्ध यहाँ नहीं होता। असंयतगुणस्थानमें सतहत्तर बँधती है क्योंकि मनुष्यायु देवायु और २५ तीर्थकर अबन्धसे बन्धमें आ जाती हैं अर्थात् यहाँ बंधने लगती हैं। देशसंयतमें सड़सठका बन्ध होता है क्योंकि असंयतमें दसकी बन्धव्यच्छित्ति होनेसे यहाँ उनका बन्ध नहीं होता। प्रमत्तमें त्रेसठका बन्ध होता है क्योंकि देशसंयतमें चारकी व्युच्छित्ति होनेसे यहाँ उनका बन्ध नहीं होता। अप्रमत्तमें उनसठका बन्ध होता है क्योंकि प्रमत्तमें व्यच्छिन्न छहका अभाव हो जाता है तथा आहारकादिक बन्धमें आ जाते हैं। अपर्वकरणमें अठावन३० का बन्ध होता है क्योंकि एक देवायुकी अप्रमत्तमें व्युच्छित्ति हो जाती है। अनिवृत्तिकरणमें बाईसका बन्ध होता है क्योंकि छत्तीसका बन्ध नहीं होता। सूक्ष्मसाम्परायमें सतरह बँधती हैं क्योंकि पाँचकी अनिवृत्तिकरणमें व्युच्छित्ति हो जाती है। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय सयोगीमें एक-एक बंधती है । अयोगीमें शून्य है ॥१०३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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