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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७७ अबंधप्रकृतिगळु मिथ्यादृष्टियो ३ सासादननो १९ मिश्रनोल ४६ असंयतनोळ ४३ देशव्रतियोळु ५३ प्रमत्तसंयतनोळु ५७ । अप्रमत्तसंयतनोळ ६१ । अपूर्व्यकरणनोळु ६२ । अनिवृत्तिकरणनोळु ९८। सूक्ष्मसांपरायनोळु १०३ । उपज्ञांतकषायनोळ ११९ । क्षीणकषायनोळु ११९ । सयोगकेवलि भट्टारकनोळु ११९ । अयोगकेवलिभट्टारकनोल अबंधप्रकृतिगळ १२० ॥ अनंतरं मार्गणास्थानंगळोळ, बंधव्युच्छित्ति बंधाबंध त्रिविधत्वमं पेवल्लि मोदलोळ. नरकगतिमार्गणेयो गाथात्रितर्याददं पेदपरु : अन्धो मिथ्यादृष्टौ तीर्थकुदाहारकद्वयं चेति त्रयम् । सासादने तदेव षोडशयुतमित्येकान्नविंशतिः । मिश्र सापि पञ्चविंशत्या नृदेवायुभ्य च युते षट्चत्वारिंशत् असंयते नृदेवायुस्तीर्थं कृद्बन्धात् त्रिचत्वारिंशत् । देशसंयते सा दशयुतेति त्रिपञ्चाशत् । प्रमत्ते चतुर्युतेति सप्तपञ्चाशत् । अप्रमत्ते प्रमत्तषड्युतापि आहारकद्वयबन्धात् एकषष्टिः । अपूर्वकरणप्रथमभागे देवायुर्युतेति द्वाष्ष्टिः । द्वितीयभागे निद्राप्रचलाभ्यां चतुःषष्टिः । सप्तमभागे १० षष्ठभागत्रिशता चतुर्नवतिः । अनिवृत्तिकरणे सप्तमभागचतुभिरष्टानवतिः । सूक्ष्मसाम्परायेऽनिवृत्तिकरणपञ्चभागानामेकैकव्युच्छित्यायुत्तरशतम् । उपशान्तक्षीणकषायसयोगेषु षोडशयुतमित्येकान्नविंशत्यग्रशतम् । अयोगे सातस्याप्यबन्धाद्विशत्यग्रशतम् ॥ १०४ ॥ अथ मार्गणासु तत्त्रयप्ररूपयंस्तावन्नरकगतौ गाथात्रयेणाह— अब अबन्ध कहते हैं । मिथ्यादृष्टि में तीर्थंकर और आहारकद्विक तीनका अबन्ध है । सासादन में उनमें सोलह मिलानेसे उन्नीसका अबन्ध है । मिश्रमें उन्नीसमें पच्चीस १५ व्युच्छित्ति तथा मनुष्यायु देवायु मिलानेसे छियालीसका अबन्ध है । छियालीस में से मनुष्यायु देवा तीर्थंकर घटानेसे असंयतमें तैंतालीसका अबन्ध है अर्थात् असंयत में ये तीन अबन्धसे बन्धमें आ जाती हैं। उनमें दस जोड़नेसे देशसंयत में तिरपनका अबन्ध है । उनमें चार जोड़ने से प्रमत्तमें सत्तावनका अबन्ध है । इसमें प्रमत्तमें व्युच्छिन्न छह प्रकृतियों को जोड़ने पर भी आहारकद्विकके बन्धमें आ जानेके इकसठका अबन्ध है । इसमें देवायु बढ़ानेसे अपूर्व - २० करके प्रथम भाग में बासठका अबन्ध है । दूसरे भाग में निद्रा प्रचलाके बढ़ने से चौसठका अबन्ध है । सप्तम भागमें छठे भागमें व्युच्छिन्न तीस प्रकृतियोंके मिलने से चौरानबेका अबन्ध है | अनिवृत्तिकरणमें अपूर्वकरणके सप्तमभागमें व्युच्छिन्न चारके मिलनेसे अठानबेका अबन्ध है । अनिवृत्तिकरणके पाँच भागोंमें व्युच्छिन्न पाँच प्रकृतियोंके मिलने से सूक्ष्मसाम्पराय में एक सौ तीनका अबन्ध है । इसमें सोलह मिलनेसे उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय सयोगी में एक सौ उन्नीसका अबन्ध है । अयोगीमें साताका भी अबन्ध होने से एक सौ बीसका अबन्ध है ||१०४ || इनकी संदृष्टि इस प्रकार हैं अपू. अनि. सू. मि. सा. मि. अ. दे. प्र. अ. १६ २५ ० १० ४ ६ १ ३६ ५ १६ ११७१०१ ७४७७६७ ६३५९ ५८ २२ १७ ३ १९४६ ४३ ५३ ५७६१ ६२ ९८ १०३ बन्ध व्यु. बन्ध अबन्ध उ. श्री. स. ० ० १ १ १ १ ११९ ११९ ११९ १२० ० For Private & Personal Use Only अ. ५ ० आगे मार्गणाओं में बन्धादि तीनका कथन करते हुए नरकगतिमें तीन गाथाओंसे कहते हैं Jain Education International २५ ३० www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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