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________________ ܕ ५ २० २५ गो० कर्मकाण्डे दव्वे कम्मं दुविहं आगमणो आगमं ति तप्पढमं । कम्मागमपरिजाणगजीवो उवजोगपरिहीणो ॥ ५४ ॥ द्रव्ये कम्मं द्विविधमागम नोआगम इति तत्प्रथमं । कर्म्मागमपरिज्ञायकजीवः उपयोग ज्ञायकशरीरं भव्यं तद्वयतिरिक्तं तु भवति यद्द्द्वितीयं । तत्र शरीरं त्रिविधं त्रिकालगत - मिति द्वे सुगमे ॥ द्वितीयं आदों नोआगमद्रव्यकम्मं तत्त्रिविधं अदु त्रिविधमक्कुं ज्ञायकशरीरं भावि तद्वयतिरिक्तमिति । ज्ञातृशरीरमें दुं ज्ञायि भाविशरीरमें कुं आयेरडरिदं व्यतिरिक्तमेदितु । तु मत्ते १५ तत्र अवरोळु शरीरं प्रथमोद्दिष्टज्ञायकशरीरं त्रिविधं त्रिप्रकारमकुं । त्रिकालगतमिति त्रिकालंगळोळु भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालंगळोळिद्दे दिन्तु द्वे सुगमे तत् ज्ञातृविन त्रिकालगतशरीरंगळोळ भूतशरीरमं बिट्टुळिद वर्तमान भाविशरीरंगळे रडुं सुगमंगळेकेदोडे वर्तमानदोलिरुत्तिद भाविकालदोळा गल्वे डिदुर्दु वुमप्पुर्दारवं । भूतशरीरक्के पेदपरु : ३० परिहीनः ॥ द्रव्यदो कम्मं द्विविधमक्कुमागमद्रव्यकम्र्ममे ढुं नोआगमद्रव्य कर्म्मसुमेदितु । तत्प्रथमं तयोर्मध्ये प्रथममागमद्रव्यकम्मं कर्म्मागमपरिज्ञायकजीवः कर्म्मागमवाच्यवाचकज्ञातृज्ञेय संबंध परिज्ञायिकजीवनप्पं । उपयोगपरिहोनः अनुपयुक्तनप्पं । तच्छास्त्रार्थावधारणानुचितनव्यापाररहित बुदत्थं । जाणुगसरीर भवियं तव्वदिरित्तं तु होदि जं विदियं । तत्थ सरीरं तिविहं तियकालगयंति दो सुगमा ॥५५ ॥ द्रव्ये कर्म द्विविधं आगमनोआगमभेदात् । तत्र कर्मस्वरूपप्रतिपादकागमस्य वाच्यवाचकज्ञातृज्ञेयसंबन्धपरिज्ञायकजीवो यः तदर्थावधारणचिन्तनव्यापार रूपोपयोगरहितः स आगमद्रव्यकर्म भवति ॥ ५४ ॥ तु पुनः यद्वितीयं नो - आगमद्रव्यकर्म तत्त्रिविधं भवति - ज्ञायकशरीरं भावि तद्व्यतिरिक्तमिति । तत्र ज्ञायकशरीरं त्रिविधं त्रिकालगतमिति । तत्र वर्तमान भाविशरीरे द्वे सुगमे तत्तत्कालवर्तित्वात् ॥५५॥ भूतशरीरस्याह द्रव्यनिक्षेप रूप कर्मके दो भेद हैं- -आगम द्रव्यकर्म और नोआगमद्रव्यकर्म । उनमें से कर्मके स्वरूपका कथन करनेवाले आगमका वाच्य वाचक सम्बन्ध और ज्ञाता ज्ञेय सम्बन्ध से जाननेवाला जो जीव वर्तमानमें उसके अर्थके अवधारण और चिन्तन व्यापाररूप उपयोगसे रहित है अर्थात् उसका उपयोग अन्य ओर है वह आगमद्रव्यकर्म है ||५४ || जो दूसरा नोआगमद्रव्यकर्म है वह तीन प्रकारका है-ज्ञायकशरीर, भावि, तद्वयतिरिक्त । उनमें से ज्ञायक शरीर तीन प्रकार है-भूत, भावि और वर्तमानकालीन । जिस शरीर सहित जीव कर्मके स्वरूपको जानता है उसका वह शरीर वर्तमान है। उससे पूर्वका छोड़ा हुआ शरीर भूत है और आगामी में जो शरीर धारण करेगा वह भावि है । उनमें से वर्तमान और भाविशरीर दो सुगम हैं, क्योंकि दोनों अपने-अपने कालवर्ती होते हैं ||१५|| भूत शरीरको कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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