SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५१ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सैकं । छ । यतिकृत्वो गुणभक्तं रूपं यावतो वारान् । गुणेन भक्तं रूपं । व- । तति भवेद्गच्छः । एंदितिवु असंख्यातरूपोनपल्यवर्गशलाकामात्रमन्योन्याभ्यस्तगुणकारशलाकेगळ प्रमाणमक्कुमवर प्रमाणमधस्तनगुणहानिशलाकेगळप्पुबुदत्थं ॥ अनंतरमुपपादादियोगत्रयक्के जघन्योत्कृष्टदिदं निरंतर प्रवृत्तिकालप्रमाणमं मुंदण गाथासूत्रदिद पेळ्दपरु : अवरुक्कस्सेण हवे उववादेयंतवढिठाणाणं । एक्कसमयं हवे पुण इदरेसिं जाव अट्ठोत्ति ॥२४२।। जघन्योत्कृष्टेन भवेदुपपादैकान्तवृद्धिस्थानानामेकसमयो भवेत्पुनरितरेषां यावदष्टौ समयास्तावत्पय्यंतं ॥ उपपादयोगमेकान्तानुवृद्धियोगमेंबी एरडुं योगस्थानंगळगे जघन्योत्कृष्टदिदं येकसमयमे १० प्रवृत्तिकालप्रमाणमक्कु । मितरेषां इतरंगळप्प परिणामयोगस्थानंगळगे द्विसमयादियोगदष्टसमयगळेनेवरमन्नेवरं निरंतरप्रवृत्तिकाल प्रमाणमक्कुं। उक्तार्थोपयोगियोगस्तंभरचनेयिदु: अस्यां स्तंभरचनायां शून्यानि त्रिकोणानि च किमर्थमिति चेदुच्यते-एक शून्यं सूक्ष्मजीव इति संज्ञात्थं । द्वे शून्ये द्वोंद्रियजीव इति संज्ञानिमित्तं । त्रिचतः पंचषट् शून्यानि त्रिचतुः संज्ञाऽसंज्ञि जीव प्रतिपादकानि लघुसंदृष्टिनिमित्तं शून्यानि कृतानि । अत्र रचनायां त्रिकोणाकारं किमत्थं १५ इत्यारेकायां इदमुच्यते त्रिकोणाकारमत्र बादरजीवसंज्ञा निमित्तं । अत्र शून्यावस्थितगोटाकारं शोभायमेव शून्यं सूक्ष्मजीव संज्ञा इति अव्यामोहेन इयं स्तंभरचना प्रतिपादनोया। हानिशलाकाः कति ? पूर्वोक्ता असंख्यातरूपोनपल्यवर्गशलाकामान्यः व- ता एवं अन्योन्याभ्यस्तस्य गुणकारशलाका नाम ॥२४१॥ अथोपपादादीनां जपन्योत्कृष्टेन निरंतरप्रवृत्तिकालप्रमाणमाह उपपादकांतानुवृद्धियोगद्वयस्थानानां प्रवृत्तिकालो जघन्येन उत्कृप्टेन च एकसमय एव स्यात् । इतरेषां २० परिणामयोगस्थानानां द्विसमयाद्यष्टसमयपयंतं स्यात् ॥२४२॥ उक्तार्थोपयोगिनी योगस्तंभरचनेयं सर्वोत्कृष्ट योगस्थान पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग गुणा हैं। इन जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थानके मध्य में स्थित अधस्तन गुणहानिशलाका असंख्यात हीन पल्यकी वर्गशलाका प्रमाण हैं । वे ही अन्योन्याभ्यस्त राशिकी गुणकार शलाका हैं ॥२४१॥ आगे उपपाद आदिके जघन्य और उत्कृष्ट से निरन्तर प्रवर्तनका काल कहते हैं- २५ उपपाद योगस्थान और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानोंके प्रवर्तनेका काल जघन्य और उत्कृष्ट से एक समय ही है। और परिणाम योगस्थानोंके प्रवर्तने का काल दो समयसे लेकर आठ समय पर्यन्त है ।।२४२।। विशेषार्थ,-उपपाद योगस्थान जन्मके प्रथम समयमें ही होता है और एकान्तानुवृद्धि योगस्थान प्रतिसमय वृद्धिरूप होनेसे अन्य-अन्य होता रहता है। अतः इन दोनों के प्रवतेने- ३० का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। एक परिणाम योगस्थान ही ऐसा है जो दो समयसे लेकर आठ समय तक रहता है ।।२४२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy