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________________ ५६६ गो० कर्मकाण्डे तिर्यचनोळ तीर्थसत्वमिल्ल । नरकगतियोळ देवायुष्यं पोरगागि भुज्यमान नरकायुष्यसहितमागि बद्धयमानतिर्यग्मनुष्यायुष्यद्विकं गूडि मूरायुष्यं सत्वमक्कु३। तिर्यग्गतियोळ भुज्यमानतिर्यगायुष्यं सहितमागि बध्यमाननरकतिर्यग्मनुष्यदेवायुष्यंगळु नाल्कु सत्वंगळपर्नु ४॥ मनुष्यगतियोळ, भुज्यमानमनुष्यायुष्यं सहितमागि बध्यमान नरकतिर्यग्मनुष्यदेवायुष्यंगळ नाल्कु सत्वंगळक्कु । देवगतियोळ भुज्यमानदेवायुष्यं सहितमागि बध्यमानतिर्यग्मनुष्यायुष्यगुडि मूरायुष्यंगळ सत्वंगळक्कुं ३॥ शेषप्रकृतिसत्वं सव्वं गुणस्थानदत्तणिदं ज्ञातव्यमक्कं । अनंतरं नरकगतियोळ सत्वप्रकृतिगळ पेन्दपरु : ओघ वा रइए ण सुराऊ तित्थमत्थि तदियोति । छट्टित्ति मणुस्साऊ तिरिए ओघं ण तित्थयरं ॥३४६।। _ओघवन्नैरपिके न सुरायुस्तोत्थंमस्ति तृतीया पर्यंत । षष्ठी पर्यंत मनुष्यायुस्तिरश्च्योघो न तीर्थकरं ॥ नारकनो गुणस्थानदोळु पेळ्द देवायुज्जितसव्र्वकम्मप्रकृतिगढ़ नूर नाल्वत्तेळमक्कु १४७। मल्लि तृतीयपृथ्वीपथ्यंतं तीर्थसत्वमुंदु । चतुर्थादिपृथ्विीगळोळ तीर्थरहितमागिया नूर नाल्वत्तारुं प्रकृतिगळ्गे १४६ सत्वमक्कुं। आरनेय मघविपय्यंतं मनुष्यायुष्यं सत्वमुंटु । १५ माघवियोळु मनुष्यायुवज्जित नूरनाल्यत्तय्दु प्रकृतिगळ सत्वमक्कं १४५॥ अल्लि घावि मूरुं तिर्यग्जीवे तीर्थकृत्त्वसत्त्वं न स्यात् । नरकगतो भुज्यमाननरकायुर्बध्यमानतिर्यग्मनुष्यायुषी चेति त्रयमेव, न देवायुः । तिर्यग्गतौ भुज्यमानतियंगायः बध्यमाननरकतिर्यग्मनुष्यदेवायूषोति चत्वारि । मनुष्यगतौ भुज्य. मानमनुष्यायुर्बध्यमाननरकतिर्यग्मनुष्यदेवायूंषीति चतुष्कं । देवगतौ भुज्यमानदेवायुर्बध्यमानतिर्यग्मनुष्यायुषी इति त्रयं । शेषप्रकृतिसत्त्वं सर्व गुणस्थानवज्ज्ञातव्यं ॥३४५।। अथ नरकगती सत्त्वमाह नारके गुणस्थानवन्न देवायुरिति सप्तचत्वारिंशच्छतं । तत्रापि तृतीयपृथ्वीपयंतं तीर्थसत्त्वमस्ति न चतुर्थ्यादिष्विति षट्चत्वारिंशच्छतं । तत्रापि षष्ठपृथ्वीपयंतं मनुष्यायुःसत्त्वमस्ति न माघज्यामिति पंचचत्वा तिर्यच जीवमें तीर्थंकर प्रकृतिका सत्व नहीं होता। नरकगतिमें मुज्यमान नरकायु, बध्यमान तियंचायु अथवा मनुष्यायु इस प्रकार तीन आयुका ही सत्त्व होता है, देवायुका नहीं। तियंचगतिमें मुज्यमान तियंचायु बध्यमान नरकायु, तिथंचायु, मनुष्यायु, देवायु इस २५ प्रकार चारों आयुका सत्त्व होता है। मनुष्यगतिमें मुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु तियचायु, मनुष्यायु, देवायु, इस प्रकार चारों आयुका सत्त्व है। देवगतिमें मुज्यमान देवायु बध्यमान तियंचायु या मनुष्यायु इस प्रकार तीन आयुका सत्त्व है। विशेषार्थ-जिस आयुको जीव भोग रहा है उसे मुज्यमान कहते हैं । और आगामी भवमें उदय आनेके योग्य जिस आयुका बन्ध होता है उसे बध्यमान कहते हैं। शेष ३० प्रकृतियोंका सत्त्व गुणस्थानोंमें जैसा कहा है उसी प्रकार जानना ॥३४५।। आगे नरकगतिमें सत्ता कहते हैं नरकगतिमें गुणस्थानवत् जानना। वहाँ देवायुका सत्त्व नहीं है, इससे सत्त्व योग्य एक सौ सैंतालीस है। तथा तीर्थंकरका सत्त्व तीसरी पृथ्वी पर्यन्त होता है, अतः २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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