________________
२०७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अवसेसा पयडीओ अघादिया धादियाण पडिमागा।
ता एव पुण्णपावा सेसा पावा मुणेयव्वा ॥१८३॥ अवशेषा प्रकृतयोऽघातिन्यो धातिनीनां प्रतिभागाः। ता एव पुण्यपापानि शेषा पापानि मंतव्याः ॥
शेषघात्यघातिगळ्गेदु पेळल्पट्ट त्यघातिगळोळु केवलज्ञानावरणादिसर्वघातिगळ्गं ५ नोकषायाष्टकवेशघातिगळगं त्रिविषभावंगळु त्रिविधशक्तिगळ पेळल्पटुवु । शेषाऽघातिप्रकृतिगळु घातिकम्मंगळ्गे पळवंत प्रतिभावंगळप्पुवु प्रतिविकल्पंगळप्पुवु । त्रिविशक्तिगळप्पुबेबुवत्थं । ता एव अवु मत्तमघातिप्रकृतिगळे पुण्यप्रकृतिगळु पापप्रकृतिगळमें वितु द्विविधंगळप्पुवु । शेषाः शेषघातिप्रकृतिगळेनितोळवनितुपापानि पापंगळेयप्पुवु यदितु मंतव्यंगळप्पुवु ।
अनंतरं घातिगळेल्ल लतावास्थिशैलभेदस्पर्धकंगळे यदु पेळ्द अघातिगळ चतुम्वि- १० भागस्पर्धकंगळ्गे नामांतरमं प्रशस्ताप्रशस्तप्रकृतिविभागदिदं पेळ्परु :
गुडखंडसक्करामियसरिसा सत्था हु जिंबकंजीरा ।
विसहालाहलसरिसाऽसत्था हु अघादिपडिभागा॥१८४॥ गुडखंडशक्करामृतसदृशाः शस्ताः खलु निवकांजीर विषहालाहलसदृशाः अशस्ताः खलु अघातिप्रतिभागाः॥
अघातिप्रतिभागाः अधातिप्रतिविकल्पंगळ अघातिशक्तिविकल्पंगळे बुदथमवु पेळल्पट्टपुवेदोडे शस्ताः प्रशस्तप्रकृतिगळ गुडखंडशवर्करामृतसदृशाः गुडमुखंडमुं शक्करेयुममृतमुमें
शेषाः अघातिप्रकृतयः घातिकर्मोक्तप्रतिभागा भवन्ति त्रिविषशक्तयो भवन्तीत्यर्थः। ता अघातिप्रकृतय एवं पुण्यप्रकृतयः पापप्रकृतयश्च भवन्ति, शेषपातिप्रकृतयः सर्वा अपि पापान्येवेति मन्तव्यम् ॥१८३॥ घातिनां सर्वेषां स्पर्धकानि लतादार्वस्थिशैलनामानोत्युक्तानि । इदानीं अघातिनां तानि प्रशस्ताप्रशस्तानां २० नामान्तरेणाह
अघातिनां प्रतिभागाः शक्तिविकल्पाः प्रशस्तानां गुडखण्डशर्करामतसदृशाः खलु स्फुट, अप्रशस्तानां स्पर्धक ही इनमें पाये जाते हैं या शैलके बिना दो प्रकार पाये जाते हैं अथवा अस्थिके बिना एक ही प्रकार पाया जाता है । इस तरह तीनों प्रकार होते हैं। पुरुषवेदके बिना आठ नोकषायोंमें शेल, अस्थि, दारु, लता चारों प्रकारका अनुभाग पाया जाता है। सो उनमें चार- २५ रूप, शेलके बिना तीन रूप और अस्थिके बिना दो रूप पाये जाते है, केवल लतारूप एक ही भाग नहीं पाया जाता ॥१८२॥
शेष अघातिया कर्मोकी प्रकृतियां घातिकमों की तरह प्रतिभागयुक्त होती हैं। अर्थात् उनके स्पर्धक भी तीन भागरूप ही होते हैं। पुण्य प्रकृति और पाप प्रकृतिका भेद अघातिकर्मों की प्रकृतियोंमें ही है। घतिकमोंकी तो सब प्रकृतियाँ पापरूप ही होती हैं ।।१८३॥ ३०
सब घाति प्रकृतियोंके स्पर्धक लता, दारु, अस्थि और शैल नामसे कहे हैं, अब अघाति कर्मोकी प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंके स्पर्धकोंके अन्य नाम कहते हैं
अघातिकर्मों के प्रतिभाग अर्थात् शक्तिके भाग प्रशस्त प्रकृतियोंमें तो गुड़, खाँड, शर्करा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org