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________________ २०० गो० कर्मकाण्डे मोदल समयदल्लिगे हि स्फुटमागि आगमनं संभविसुगुमा परिणमंगळु परिवर्तमानंगल बुवक्कुमल्लि उत्कृष्टंगळं मध्यमंगळं जघन्यंगळमें वितु त्रिविधपरिणामंगळप्पुवल्लि सर्वविशुद्धिपरिणामंगळवं प्रशस्त प्रकृतिगळ्गे जघन्यानुभागमुमागदु । अप्रशस्तप्रकृतिगळनुभागमं नोडल प्रशस्तप्रकृतिगळ अनन्तगुणानुभागक्के अनन्तगुणवृद्धिप्रसंगमुमक्कुमप्पुरिदं सर्वसंक्लेशपरिणामंगळिदमुं अप्रशस्त५ प्रकृतिगळ्गे जघन्यानुभागमागदु । तीब्रसंक्लेशदिदमप्रशस्तप्रकृतिगळ्गनुभागवृद्धिप्रसंगमप्पुरिंद मन्तुमल्लदु कारणदिदं जघन्योत्कृष्टपरिणामनिराकरणनिमित्तमागि परिवर्तमानमध्यमपरिणामंगळिदमें दितु पेळल्पटुदु॥ ___ अनन्तरं मूलप्रकृतिगळुत्कृष्टानुत्कृष्टाजघन्यजघन्यानुभागंगळगे साधनादि धुवाध्रुवानुभागबंधसंभवासंभवमं पेळ्दपर : __ घादीणं अजहण्णोणुक्कस्सो वेयणीयणामाणं । अजहण्णमणुक्कस्सो गोदे चदुधा दुधा सेसा ॥१७८॥ घातिनामजघन्योऽनुत्कृष्टो वेदनीयनाम्नोरजघन्योऽनुत्कृष्टो गोत्रे चतुर्द्धा द्विधा शेषाः॥ ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीयान्तरायघातिकमंगळ अजघन्यमुं। वेदनीयनामकर्मद्वितयद अनुत्कृष्टमुंगोत्रकर्मदोळु अजघन्यमुमनुत्कृष्टमुं इंतेंटु स्थानंगळोळ साधनादि ध्रुवाघ्रवानु१५ भागबंधभेददिदं चतुम्विधंगळप्पुवु। शेषाः शेषजघन्याजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टस्थानंगळनितुं मूलप्रकृति गुणवढिप्पसंगादो-अनन्तगुणप्रशस्तप्रकृत्यनुभागस्य अनन्तगुणवृद्धिप्रसंगात्, ण-न, सब्बसंकिलिट्ठपरिणामेहि य सर्वसंक्लिष्टपरिणामश्च, तिब्वसंकिलिस्सेण-तीनसंक्लेशेन, असुहाणं पयडीणं-अशुभानां प्रकृतीनां अणुभागवड्ढिप्पसंगादो-अनुभागवृद्धिप्रसंगात् । तम्हा-तस्मात्, जहण्णुक्रम्सपरिणामणिराकरलैं-जघन्योत्कृष्टपरिणा मनिराकरणार्थम, परियत्तमाणमझिमपरिणामेहित्ति उत्तं-परिवर्तमांनमध्यमपरिणामैरित्युक्तं ॥१७७॥ अथ २० मूलप्रकृतीनां उत्कृष्टाद्यनुभागानां साद्यादिसंभवासंभवावाह घातिनां चतुर्णामजघन्यः, वेदनीयनामकर्मणोरनुत्कृष्टः गोत्रस्याजघन्यानुत्कृष्टौ च साद्यनादिध्र वाध्र वभेदाच्चतुर्धाः भवन्ति । शेषाः जघन्याजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टाः साद्यध्र वभेदाद् द्वेधैव ॥१७८॥ अप्रशस्त दोनों ही प्रकार की प्रकृतियाँ हैं। यदि सर्वोत्कृष्ट विशुद्ध परिणामोंसे उनका जघन्य अनुभागबन्ध कहते हैं तो अप्रशस्त में जितना अनुभागबन्ध होगा उससे अनन्तगुणा अनुभाग बन्ध प्रशस्त प्रकृतियों में होगा। तब जघन्य अनुभागबन्ध कहाँ रहा। इसी तरह यदि तीव्र संक्लेश परिणामोंसे उनका जघन्य अनुभागबन्ध कहते हैं तो अप्रशस्त प्रकृतियोंमें अनुभाग बढ़ जायेगा। अतः दोनों को छोड़कर परिवतमान मध्यम परिणामोंसे उनका जघन्य अनुभागबन्ध कहा है ॥१७॥ _ अब मूल प्रकृतियोंके उत्कृष्ट आदि अनुभागके सादि आदि भेद होते हैं या नहीं ३० होते, यह कहते हैं चारों घातिकमौका अजघन्य अनुभागबन्ध, वेदनीय और नामकर्मका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध तथा गोत्रकर्मका अजघन्य और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवके भेदसे चार प्रकार के होते हैं। शेष अर्थात् चारों घातिकर्मो के अजघन्यके बिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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