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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसेण । विवरीदेण जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं ॥ १६३॥ शुभप्रकृतीनां विशुध्या तीव्रः अशुभानां संक्लेशेन । विपरीतेन जघन्योऽनुभागः सर्व्वप्रकृतीनाम् ॥ शुभप्रकृतीनां सातादि प्रशस्त प्रकृतिगळगे । विशुद्धया विशुद्धिपरिणामविदं । तीब्रः तीब्रानुभागमक्कुमशुभानाम् असाताद्यप्रशस्तप्रकृतिगळगे । संक्लेशेन संक्लेशपरिणामविंद तीब्रः तीम्रानुभागमक्कुं । विपरीतेन संक्लेशपरिणामविद प्रशस्त प्रकृतिगळगे जघन्यानुभागमुं विशुद्धिपरिणामविवमप्रशस्तप्रकृतिगळगे जघन्यानुभागमुमक्कु । सर्व्वप्रकृतीनां मूलोत्तरोत्तर प्रकृतिगळगेनितोळ वतिक्कं ॥ १९१ बादलं तु पसत्था विसोहिगुणमुक्कडस्स तिब्बाओ । बासीदि अप्पसत्था मिच्छुक्कड संकि लिट्ठस्स ॥ १६४॥ द्वाचत्वारिंशत् तु प्रशस्ताः विशुद्धिगुणोत्कटस्य तीव्राः । द्वयशीत्यप्रशस्ताः मिथ्यादृष्टचुत्कटसंकिलिष्टस्य ॥ प्रशस्ताः साताविप्रशस्त प्रकृतिगळु द्विचत्वारिंशत्संख्याप्रमितंगळ विशुद्धिगुणोत्कटस्य विशुद्धिगुणदेवमुत्कटनप्प जीवंगे तीव्राः तीब्रानुभागंगळप्पुवु । द्वयशीत्यप्रशस्ताः असातादिवर्णचतुष्टयोपेतद्वचशीत्यप्रशस्तप्रकृतिगळु मिथ्यादृष्टघुत्कटसंक्लिष्टस्य मिथ्यादृष्टयुत्कटसं क्लिष्टजीवंगे। तु मत्त तीब्राः तीव्रानुभागंगळवु ॥ शुभप्रकृतीनां सातादीनां प्रशस्तानां विशुद्धिपरिणामेन, असाताद्यप्रणश्वानां संक्लेशपरिणामेन च तीव्रानुभागो भवति । विपरीतेन संक्लेशपरिणामेन प्रशस्तानां विशुद्धपरिणामेन अप्रशस्तानां च जघन्यानुभागो भवति ॥ १६३॥ सावादिप्रशस्ताःद्वाचत्वारिंशद्विशुद्धिगुणेनोत्कटस्य, असातादिचतुर्वर्णोपेताप्रशस्ताः द्वयशीतिः मिथ्यादृष्टयुत्कटस्य संक्लिष्टस्य च तीव्रानुभागा भवन्ति ॥ १६४ ॥ शुभ प्रकृति अर्थात् साता आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका विशुद्धि परिणामोंसे तीव्र अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है । और असाता आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका संक्लेश परिणामों से तीव्र अर्थात् उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध होता है । और असाता आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका संक्लेश परिणामोसे तीव्र अनुभागबन्ध होता है। तथा विपरीतसे अर्थात् संक्लेश परिणामसे प्रशस्त प्रकृतियोंका और विशुद्धि परिणामसे अप्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध होता है । इस प्रकार सब प्रकृतियोंका अनुभाग बन्ध होता है । मन्दकषाय रूप परिणामोंको विशुद्ध और तीव्रकषाय रूप परिणामों को संक्लेश कहते हैं ॥ १६३ ॥ सातावेदनीय आदि बयालीस प्रशस्त प्रकृतियाँ, जिसके विशुद्धि गुणकी तीव्रता होती है, उसके तीव्र अनुभाग बन्धको लिए हुए बँधती हैं। और असाता आदि बयासी अप्रशस्त प्रकृतियाँ उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले मिध्यादृष्टिके तीव्र अनुभाग सहित बँधती हैं ॥ १६४ ॥ विशेषार्थ - यहाँ शुभ वर्ण गन्ध रस स्पर्शको प्रशस्त प्रकृतियों में गिना है और अशुभ वर्ण गन्ध रस स्पर्शको अप्रशस्त प्रकृतियों में गिना है। इस तरह इन चारकी गणना दोनों में Jain Education International For Private & Personal Use Only ५ १० १५ २० २५ ३० www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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