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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ३१३ =a a २ दोगुणहानियिदं aa २ । भागिसुत्तं विरलु विशेषमक्कु । -a aad मिदु लघुसंदृष्टिनिमित्तं । वि । एंदितु माडल्पटुददं मत्ते दोगुणहानियिंदं गुणिसुत्तं विरलु प्रथमगुणहानियोळ प्रथमस्पर्द्धकदादिवर्गणेयक्कुं। वि १६ । तंदवस्थंगळेयप्पुवु । हीनाधिकभावमिल्लेदितिवें वुदत्य । मत्तं जघन्यवर्गमात्रशक्तियं कुरुतु सदृशधनिकत्वदिदं त्रैराशिकविधानदिदं प्र१। फ।व। इ। वि १६ । बंद लब्धं प्रथमगुणहानियोळु प्रथमस्पर्द्धकदादिवर्गणेयकुं। व। वि १६ । मेले सर्वत्र ५ विशेषहोनप्रदेशंगळ्गे अविभागोत्तरादिजघन्यवर्ग त्रैराशिकदिदमुत्पन्नगुणकारं सुगममक्कुं। नवीनमुंटदावुदंदोडे गुणहानि गुणहानि प्रतियादियं नोडलादियछुद्धक्रममकुमेकेंदोडे सर्वत्र रूपोनगुणहानिमात्रविशेषहीनविवक्षितगुणहानिप्रथमवर्गणेये तच्चरमवर्गणेयप्पुदरिना चरमवर्गणाप्रदेशगळिदं तदुत्तरगुणहान्यादिवर्गणाप्रदेशंगळु पूर्वेकविशेषहीनत्वदिदमद्धिंगळप्पुवप्पुदरिदं । यिल्लिदं मेले द्वितीयादिगुणहानिगळोलु विशेषमुमद्धि क्रममक्कुमाउदोंदु कारणदिदं दोगुण- १० हानियिदं स्वस्वादि भागिसल्पडुत्तिरलागळा विशेष वामप्पुरिदमा सर्वगुणहानिगळोळन्नेवरं प्रथमगुणहानिप्रथमस्पर्धकप्रथमवर्गणाप्रदेशकलापे = a a २ दोगुणहान्या । । भक्ते विशेषः स्यात् २०३३ स एव पुनः लघुसंदृष्टिनिमित्तं वि इति कृत्वा दोगुणहान्या गुणितः प्रथम गुणहानी प्रथमस्पर्धकादिवर्गणा स्यात् वि १६ । इयं तदवस्थव न च हीनाधिकेत्यर्थः । पुनर्जघन्यवर्गमात्रशक्ति प्रति सदृशधनिकत्वात् त्रैराशिकविधानेन प्र १ फ व इ वि १६ लब्धं प्रथमगुणहानी प्रथमस्पर्धकादिवर्गणा भवरि व वि १६ । एवमुपर्युपरि १५ सर्वत्राविभागोत्तरादिजघन्यवर्गः त्रैराशिकोत्पन्नगुणकारः सुगमः, किंतु गुणहानि गुणहानि प्रति आदितः आदिः अर्धाधंक्रमः । कुतः ? पूर्वगुगहान्यादिवर्गणायाः गुणहानिमात्रस्वविशेषींनायाः उत्तरगुणहान्यादिवर्गणात्वात् । तथा विशेषोऽप्यर्धार्धक्रमः स्वस्वादेः दोगुणहानिभक्तस्य तत्प्रमाणत्वात् । तासु सर्वगुणहानिषु तावत् प्रथमप्रमाण होता है। वह जगतश्रेणीके असंख्यातवें भाग मात्र ही है। उसका भाग जीवके प्रदेशोंमें देनेफ्र असंख्यात जगतप्रतर प्रमाण प्रदेशोंका प्रमाण होता है। सो इतने प्रदेशोंके २० समूहको प्रथम वर्गणा कहते हैं। इसीसे एक वर्गणामें असंख्यात जगतप्रतर प्रमाण वर्ग आगे उस जघन्य शक्तिरूप वर्गमें जितने अविभाग प्रतिच्छेदोंका प्रमाण कहा उससे एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद जिनमें पाये जायें ऐसी शक्तिके धारक जितने प्रदेश हों उतने प्रदेश उसके ऊपर लिख । ये प्रदेश प्रथम वर्गणामें जितने प्रदेश कहे थे उनसे एक २५ चय हीन होते हैं। प्रथम वर्गणामें जो प्रदेशोंका प्रमाण है उसे दो गुणहानिसे भाग देनेपर जो प्रमाण हो वही चय या विशेषका प्रमाण जानना। सो विशेषकी सहनानी 'वि' अक्षर जानना । एक गुणहानिमें जो वर्गणाओं का प्रमाण है उसको दूना करनेपर दो गुणहानिका १. म मिल्लदेइर्दति'वुबु । क-४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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