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________________ गो० कर्मकाण्डे मिश्रनोमसंयतनोळं उच्चग्गत्रमं मनुष्यद्विकम् सप्तमपृथुवियो बंधमक्कुं । मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिगळीवंरु मनुष्यद्विक मुमनुच्चैग्गोत्रमुमं कट्टरें दितु मिथ्यादृष्टियोळबंधप्रकृतिगळु ३ अ । सासादनसम्यग्दृष्टिगे बंधव्युच्छित्तिगळु २४ अप्पुवेकें दोडे तिर्य्यगायुष्यमं तेगदु मिथ्यादृष्टिय व्युच्छित्तिगळोळकूडिदप्पुदरिवं बंधप्रकृतिगळु ९१ अप्पुवेकें दोर्ड मिथ्यादृष्टिबंधव्युच्छि - ५ गिल कळेदुदप्पुदरिदं । अबंधप्रकृतिगळु ८ प्पुवेके दोडे मिथ्यादृष्टिय व्युच्छित्तिगळ मातन अबंधप्रकृतिगळमूरुं ३ कूडिदोडे टे प्रकृतिगलप्पुदरिदं मिश्रनो व्युच्छित्तिशून्यमक्कुं । बंधप्रकृतिगळु सासादनन व्युच्छित्तिगळनातनबंध प्रकृतिगळोळकलेदोडे ६७ प्रकृतिगळप्पुववरोळ मनुष्यद्विकमनुच्चैत्रमं कूडिदोडे मिश्रंगे बंधप्रकृतिगळु ७० अप्पूवु । अबंधप्रकृतिगळा कूडिद मूरुं प्रकृतिगळं सासादनन व्युच्छित्यबंधंगळो ३२ कळेदोडे मिश्रंगबंधप्रकृतिगळ २९ अप्पु । १० असंयतसम्यग्दृष्टिगे बंधव्युच्छित्तिगळु मनुष्यायुर्व्वज्जित नवप्रकृतिगळप्पुवु ९ । बंधप्रकृतिग मिश्रंगे पेदंते ७० प्रकृतिगळप्पुवु । अबंधप्रकृतिगळं मिश्रतोळेंतंते २९ प्रकृतिगळप्पुवु । माघविय अपर्थ्याप्त मिथ्यादृष्टिगे तिर्य्यगायुर्व्वज्जित ९८ प्रकृतिगलोळगे मनुष्यद्विकोच्च प्रकृतित्रयमं कलेदोडे ९५ प्रकृतिगळबंधंगळप्पुवु । इन्तु नरकगतियो बंधैव्युच्छित्तिबंधाबधप्रकृतिगळु पेळल्पटुवनंत रं तिर्यग्गतियोळु पेदपरु : १५ ८२ २० सप्तमपृथिव्यां मिश्रा संयतयोरुच्चैर्गोत्रं मनुष्यद्वयं च बध्नाति । मिथ्यादृष्टिसासादनौ न बघ्नतः इति तत्त्रयं तत्पर्याप्ते मिथ्यादृष्टावबन्धः । बन्धः षण्णवतिः । व्युच्छित्तिस्तिर्यगायुषोऽत्रैव बंधात् पञ्च । सासादने अबन्धोऽष्टौ, बन्धः एकनवतिः व्युच्छित्तिः चतुविशतिः । मिश्रेऽवन्धः तत्त्रयबन्धादेकान्नविंशत्, बन्धः सप्ततिः, व्युच्छित्तिः शून्यम् । असंयते अबन्धबन्धौ मिश्रवत् । व्युच्छित्तिर्मनुष्यायुर्वर्जनान्नव ॥ १०७॥ एवं नरकगतो बन्धव्युच्छित्तिबन्धाबन्धप्रकृतीः प्ररूप्य अनन्तरं तिर्यग्गतौ प्ररूपयति- सातवीं पृथिवी में मिश्र और असंयत गुणस्थान में ही उच्चगोत्र और मनुष्यद्विकका बन्ध होता है । मिध्यादृष्टि और सासादनमें उनका बन्ध नहीं होता । अतः सातवीं पृथिवी में पर्याप्त अवस्था में मिध्यादृष्टिमें इन तीनोंका अबन्ध होता है । बन्ध छियानबे, तिर्यगायुका बन्ध यहीं होने से व्युच्छित्ति पाँच । सासादन में अबन्ध आठ, बन्ध इक्यानबे, व्युच्छित्ति चौबीस | मिश्र में मनुष्यद्विक और उच्चगोत्रका बन्ध होनेसे अबन्ध उनतीस, बन्ध सत्तर, २५ व्युच्छित्ति शून्य । असंयत में अबन्ध और बन्ध मिश्र की तरह, व्युच्छित्ति मनुध्यायुको छोड़ नौ ॥ १०७ ॥ धर्मादि तीन पर्याप्त १०१ बन्धयोग्य मि. सा. मिश्र | असं. अबन्ध १ ५ ३१ २९ बन्ध |१०० ९६| ७० ७२ ४ २५ ० १० बं. व्यु. Jain Education International धर्मा अपर्याप्त अंजनादि तीन पर्याप्त ९९ बन्धयोग्य १०० बन्धयोग्य मि. असं. मि. सा. मिश्र | असं. १ २८ ० ४ ३० २९ & ९८ ७१ २८ ९ | १०० ९६ ७० ४ २५ ० For Private & Personal Use Only ७१ १० सप्तम नरक पर्याप्त ९९ बन्धयोग्य मि. सा. मिश्र | असं. ३ ८ २९ | २९ ९६ ९१ ७० ७० ५ २४ ० ९ www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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