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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ५४५ सेसाणं सगुणोघं सण्णिस्स वि णत्थि ताव साहरणं । थावर-सुहुमिगिविगलं असणिणो वि य ण मणुदुच्चं ॥३३०॥ शेषाणां स्वगुणौधः संजिनश्च नास्त्यातप साधारणं । स्थावरसूक्ष्मैकविकलमसंजिनोपि च न मनुष्यद्वयोच्चं ॥ शेषमिथ्यादृष्टिसासादन मिश्ररुचिगळ्गे स्वगुणौघमक्कुमल्लि मिथ्यारुचिगळ्गे मिश्रप्रकृति- ५ सम्यक्त्वप्रकृति आहारकद्रयतीर्थकर नाममंतम्, प्रकृतिगळं कळेदु नूरपदिनेछं प्रकृतिगळुवययोग्यंगळप्पुवु ११७ ॥ सासादनरुचिगळ्गा प्रकृतिपंचकमु ५. मिथ्यात्वप्रकृतियुं १ सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणत्रयमुमातपनाममुं नरकानुपूर्व्यमुमंतु पन्नोंदु प्रकृतिगळं कळेदु नूर पन्नोंदु प्रकृतिगळुदययोग्यंगळप्पुवु १११ । मिश्ररुचिगळ्गा पन्नों दुं प्रकृतिगळोळु मिश्रप्रकृतिय कळेदु शेष पत्तुं प्रकृतिगळं १० । अनंतानुबंधिचतुष्क मुं ४ । एकेंद्रियजातियुं १ स्थावरनाममुं १ विकलत्रयमुं३ तिय्यंगानु- १० पूय॑मुं १ मनुष्यानुपूयमुं १ देवानुपूय॑मु १ मितिप्पत्तेरडु प्रकृतिगळं कळेदु शेष नूरुं प्रकृतिगलुदययोग्यंगळप्पुवु १०० संज्ञिमाग्नणयोळ आतपनाममुं १ साधारणशरीरनाममु१ स्थावर. नाममुं १ सूक्ष्मनाममु १ मेकेंद्रियजातिनाममुं १ विकलेंद्रियजातित्रयमु ३ तीर्थकरनाममुमि तो भतं प्रकृतिगळं कळे दु शेष नूर पदिमूरुं प्रकृतिगळुदययोग्यंगळप्पुवु ११३ ॥ मिथ्यावृष्टयादि. पन्नेरडुं गुणस्थानंगळप्पुवे दोड सयोगायोगिकेवलिगुणस्थानंगळगे संज्ञित्वमिल्लेके दोडे "संजिनः १५ समनमस्काः" एंदितु समनस्क रल्लप्पु दरिदं । अंतादोडऽमनस्करेकल्ले बोर्ड तिय्यंचरुगळ्गल्लवमनस्कव्यपदेशमिल्लप्पुरदं । अल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्वप्रकृतियु १ अपर्याप्तनाममु १ मितेरई Arrrrrrrrrrrrrrrr शेषाणां मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्ररुचीनां स्वगुणोषः। तत्र मिथ्यारुचीनां मिश्रसम्यक्त्वाहारकद्वयतीर्थकरत्वानि नेत्युदययोग्यं सप्तदशोत्तरशतं ११७ । सासादनरुचीनां तत्पंचकं मिथ्यादृष्टिः व्युच्छित्तिपंचकं नरकानुपूयं च नेत्येकादशोत्तरशतं १११ । मिश्ररुचीनां मित्रं विना ता एव दश पुनः अनंतानुबंधिचतुष्कमेकें. २० द्रियं स्थावरं विकलत्रयं तिर्यग्मनुष्यदेवानुषाणि च नेति शतं १००। संज्ञिमार्गणायामातपसाधारणस्थावरसूक्ष्म केंद्रियविकलायतीर्थकरत्वानि नेति त्रयोदशशतमदययोग्यं । ११३ । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टयादीनि द्वादश । सयोगायोगो न संजिनी भावमनोरहितत्वात । नाप्यसंज्ञिनो शेष मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र सम्यक्त्वमें अपने-अपने गुणस्थानवत् जानना। उनमें से मिथ्यारुचिमें मिश्र, सम्यक्त्व, आहारकद्विक और तीर्थकरके न होनेसे उदययोग्य एक सौ सतरह ११७ हैं। सासादनरुचिमें वे पाँचों, मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति पाँच और नरकानुपूर्वी नहीं होनेसे उदय योग्य एक सौ ग्यारह हैं । मिश्ररुचिमें मिश्रके बिना दस ऊपर कही तथा अनन्तानुबन्धी चार, एकेन्द्रिय स्थावर, विकलत्रय, तिथंचानपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी ये बाईस न होनेसे उदय योग्य सौ हैं। इन सबमें अपना-अपना एक ही गुणस्थान होता है। संज्ञीमार्गणामें आतप, साधारण, स्थावर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, विकलत्रय और तीर्थकरके न होनेसे उदययोग्य एक सौ तेरह हैं । गुणस्थान मिथ्यादृष्टिसे लेकर बारह हैं। सयोगकेवली और अयोगकेवली संज्ञी नहीं हैं क्योंकि उनके भावमन नहीं होता। और न वे असंज्ञी हैं क-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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