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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २५५ औदारिकांगोपांगमु१ वज्रनाराचनाराच अर्द्धनाराच कोलितासंप्राप्तसृपाटिकासंहननपंचकमु ५ वर्णचतुष्कमु ४ । नरकतिर्यग्मनुष्यानुपूळ्यत्रितयमु३ अगुरुलघुकमु१ उपघातमु१ परघातमु १ उच्छ्वासमु१ आतपमु१। उद्योतमु १ अप्रशस्तविहायोगतियुं १ असस्थावरद्विकमु२ बादरसूक्ष्मद्विकमु२। पर्याप्तापर्याप्तद्विक, २। प्रत्येक साधारणशरीरद्विकमुं २। स्थिरास्थिरद्विकमुं २ । शुभाशुभद्विकमु२ । दुभंगमुं १ दुःस्वरमुं १ अनादेयमुं १ अयशस्कोतियुं १ । निर्माण- ५ नाममु १ नोचैर्गोत्रमुं में ब षट्षष्टिप्रकृतिगळ्गे प्रदेशोत्कटम मिथ्यादृष्टिये माळ्कु । यितुक्तानुक्त १२० प्रकृतिगळ्गे प्रदेशोत्कटबंधकारमुत्कृष्टयोगप्रकृतिबंधाल्पतरत्वमनुळळ संज्ञिपर्याप्तजीवंगळे प्रवेशोत्कटबंधमं माळपर । इल्लि मिथ्यात्वप्रकृतिगे मिथ्यादृष्टियो व्युच्छित्तियागलनन्तानुबंधिगे सासादननोळेकिंतु अग्रहणोडे मिथ्यात्वद्रव्यक्क देशघातिगळे स्वामिगळप्पुरिंदमदु कारणमागिये प्रकृत्यल्पतराभावमप्पुरिदं मुन्निनंत सबंधप्रकृतिगळप्पुदरिननन्तानुबंधिगातनोळग्रहण- १० ___ अनंतरं मुन्नं जहण्णए जाण विवरीयमे दरप्पुरिदमा जघन्यप्रदेशबंधस्वामिसामग्रीविशेषमं पेलवपरु :वामनहुण्डोदारिकाङ्गोपाङ्गवज्रनाराचार्धनाराच कीलितासंप्राप्तसृाटिकाचतुर्वर्णनरकतिर्यग्मनुष्यानुपूर्व्यागुरुलघू - पघातपरपातोच्छ्वासातपोद्योताप्रशस्तविहायोगतित्रसस्थावरबादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तप्रत्येकसाधारणस्थिरास्थिर - १५ शुभाशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशस्कीतिनिर्माणनीचैर्गोत्राणां षट्पष्टेः मिथ्यादृष्टिरेव करोति । एवमुक्तानुक्त १२० प्रकृतीनां उत्कृष्टप्रदेशबन्धकारणमुत्कृष्टयोगादिप्रागुक्तमेवावसेयम् । अत्र मिथ्यात्वस्य मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिद्रव्यमुत्कृष्टमुक्तं, तथानन्तानुबन्धिनः सासादने किमिति नोच्यते ? तन्न मिथ्यात्वद्रव्यस्य देशघातिनामेव स्वामित्वात् ॥२१२-२१४॥ अथ पूर्व 'जहण्णये जाण विवरीयं' इत्युक्तं तत्सामग्रीविशेषमाहद्विकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्त करता है। इन चौवन प्रकृतियोंसे शेष रहीं स्त्यानगृद्धि २० आदि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी कषाय चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, नरकायु, तियचायु, नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, हुण्डक संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वजनाराच, अर्धनाराच, कीलित, असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, वर्णादि चार, नरकानुपूर्वी, तिर्यगनुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, २५ आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थितर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अना देय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र इन छियासठका मिथ्यादृष्टि ही करता है । इस प्रकार गाथामें कही गयी और न कही गयी एक सौ बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका कारण पूर्वमें कहे उत्कृष्ट योग आदि जानना। शंका-यहाँ मिथ्यावृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यात्वकी व्युच्छित्तिका द्रव्य उत्कृष्ट कहा है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीका सासादनमें क्यों नहीं कहा ? समाधानआगे मूल प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धके स्वामी कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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