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________________ ३९४ गो० कर्मकाण्डे योगात् योगदिदं प्रकृतिप्रदेशौ भवतः प्रकृतिबंधमुं प्रदेशबंधमुमप्पुवु । स्थित्यनुभागौ स्थितिबंधमुमनुभागबंधमुमेरडु कषायतो भवतः कषायस्थानोददिदमप्पुवु । अपरिणतजघन्यदिदमेकसमयमुत्कृष्टदिदमन्तर्मुहूत्तंकालपर्यन्तं कषायस्थानोदयापरिणतनप्प उपशांतकषायनोळं उच्छिन्नेषु च क्षपितकषायरुगळप्प क्षीणकषायनोळं सयोगकेवलिजिननोळं बंधस्थितिकारणं नास्ति तात्५ कालिकबंधक्के स्थितिबंधकारणमिळ । न शब्ददिंदमयोगिकेवळिजिननोळं प्रकृतिप्रदेशबंध. कारणमप्प योगमुं स्थित्यनुभागबंधकारणमप्प कषायस्थानोदयमुमिल्ल ॥ ___अनंतरं योगस्थानप्रकृतिसंग्रहस्थितिविकल्पस्थितिबंधाध्यवसायअनुभागबंधाध्यवसायकर्मप्रदेशमें विवक्कल्पबहुत्वमं पेळ्दपरु गाथासूत्रदिदं : सेढिअसंखेज्जदिमा जोगट्ठाणाणि होति सव्वाणि । तेहिं असंखेज्जगुणो पयडीणं संगहो सव्वो ॥२५८॥ श्रेण्यसंख्येय भागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति सर्वाणि । तैरसंख्येयगुणः प्रकृतीनां संग्रहः सव्वाः ॥ प्रकृतिप्रदेशबंधी योगाद्भवतः । स्थित्यनुभागबंधौ कषायतो भवतः । जघन्यतः एकसमय उत्कृष्टतो. ऽन्तर्मुहुर्त अपरिणतकषायस्थानोदयोपशांतकषाये क्षपितकषायक्षोणकषायसयोगयोश्च तात्कालिकबंधस्य स्थिति१५ बंधकारणं नास्ति । चशब्दादयोगकेवलिनि प्रकृतिप्रदेशबंधकारणं योगः स्थित्यनुबंधकारणं कषायस्थानोदयश्च नास्ति ॥२५७॥ अथ योगस्थानप्रकृतिसंग्रहस्थितिविकल्पस्थितिबंधाध्यवसायानुभागबंधाध्यवसायकर्मप्रदेशानामल्पबहुत्वं गाथात्रयेणाह प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे होते हैं । अर्थात् जैसा शुभ या अशुभ योग होता है वैसा ही प्रकृतिबन्ध होता है और जैसा योगस्थान होता है वैसा ही समयप्रबद्ध बँधता है। २० अतः ये दोनों बन्ध योगसे होते हैं। स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं। जैसी कषाय होती है वैसी ही यथायोग्य स्थिति और अनुभाग बँधते हैं। जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त काल तक जिसमें कषाय स्थान उदयरूप नहीं है ऐसे उपशान्त कषाय और कषायरहित क्षीणकषाय और सयोगकेवलोके जो प्रतिसमय बन्ध होता है उसके स्थितिबन्धका कारण नहीं है। 'च' शब्दसे अयोगकेवलीमें प्रकृति और प्रदेशबन्धका २५ कारण योग तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण कषाय दोनों ही नहीं हैं अतः उसके बन्ध नहीं होता ।।२५७॥ आगे योगस्थान, प्रकृतिसंग्रह, स्थितिभेद, स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान, अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान और कर्मों के प्रदेश, इनका अल्पबहुत्व तीन गाथाओंसे कहते हैं १.ब न स्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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