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________________ जीवतत्त्वप्रदीपिका निरंतरं,सांतर,निरंतर,सांतरभेदभिन्न सर्वयोगस्थानगळु श्रेण्यसंख्येयभागंगळप्पु. ३१ । २। । वरिंदमुमसंन्यातलोकगुणं सर्वप्रकृतिसंग्रहमक्कु== २ मोयुत्तरोत्तरप्रकृतिसंख्ययेतादुदे. दोडे पेळल्पडुगुमदेतेंदोडे मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानावरणीयमेंदु ज्ञानावरणीयदुत्तरप्रकृति. गळ ५ अप्पुवु । अवरोळु श्रुतज्ञानावरणीयोत्तरोत्तरप्रकृतिगळसंख्यातलोकप्रमितंगळप्पुवेतेदोडे मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानमेंदु ज्ञानपंचकरके प्रत्येकं भेदप्रभेदंगळु जीवकांडदोळ्पेळल्पट्ट ५ प्रकारदिदमिवरोळु पर्यायश्रुतज्ञानमादियागि लोकबिंदुसारपूर्वश्रुतज्ञानमवसानमाद समस्तश्रुतज्ञानविकल्पंगळु पर्याय अक्षर पद संघातप्रतिपत्ति अनुयोग प्राभृतक, प्राभृतकप्राभृतक वस्तु पूर्वमेंब पत्तं भेदंगळुमवर समासंगळं सहितमागि अक्षरानक्षरात्मक क्षायोपशमिकश्रुतज्ञानविकल्पंगळुमसंख्येयलोकमानंगळप्पुवु=a2a \१। एनितु ज्ञानविकल्पंगळप्पुवनितेयावरणविकल्पंगळप्पुवल्लि विशेषमुंटदाबुददोडे पर्यायज्ञानं निरावरणज्ञानमक्कुमेंकेंदोडदु सर्वनिकृष्टज्ञानमप्पुरिदमदक्का- १० वरणमुटक्कुमप्पोडे जीवाभावमागिबद्दुमदुकारणमागिरूपोनश्रुतज्ञानविकल्पमात्रबृतज्ञानावरणंगळुत्तरोत्तरप्रकृतिगळप्पुवु । श्रुतं मतिपूर्वमें दितु मतिज्ञानविकल्पंगळु श्रुतज्ञानविकल्पप्रमितंगळगुरदं तदावरणंगळुमुत्तरोत्तरप्रकृतिगळु तावन्मात्रंगळेयप्पुवु । ==a ।१ । देशावधि परमावधिज्ञानमेंबरडुमवधिज्ञानंगळं सविकल्पज्ञानंगळप्पुरिदं देशावधिज्ञानविकल्पंगळु विषयभेददिदं त्रैराशिकसिद्धंगळप्पुवा त्रैराशिकमेंतदोडे एकप्रदेश क्षेत्रदोळु वृद्धियागुत्तं विरलु सूच्यंगुलासंख्या- १५ तैकभागद्रव्यविकल्पंगळप्पुवागळु घनांगुलासंख्यातकभागोनलोकमात्रप्रदेशंगळु क्षेत्रदोळ वृद्धिया निरंतरसांतरतदुभयभेदभिन्नसर्वयोगस्थानानि श्रेण्यसंख्येयभागमात्राणि । २ ३१० एभ्योऽसंख्यात लोकगुणः सर्वप्रकृतिसंग्रहः । = a = ३२ तद्यथा-ज्ञानावरणीयस्य उत्तरप्रकृतयः पंच तत्र श्रुतावरणानि पर्यायज्ञानस्य निरावरणत्वात असंख्यातलोकषट्स्थानवद्धिवधितपर्यायसमासादिभेदमात्राणीत्येतावंति === a 'श्रुतं मतिपूर्व' इति मत्यावरणान्यपि तावंति = a = a देशावध्यावरणानि धनांगुलासंख्येयभागोने लोके सूच्यं- २० निरन्तर, सान्तर और निरन्तरसान्तरके भेदसे भिन्न सब योगस्थान जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग हैं। उनसे असंख्यात लोक गुना सब प्रकृतियोंका समूह है। अर्थात् सब योगस्थानोंके प्रमाणको असंख्यात लोकसे गुणा करनेपर कर्मोंकी प्रकृतियोंका प्रमाण होता है। वही कहते हैं ___ ज्ञानावरणीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ पाँच हैं। उनमें से श्रुतज्ञानावरणमें पर्यायश्रुत-२५ ज्ञानके निरावरण होनेसे असंख्यात लोकबार षट्स्थान वृद्धिसे वधित पर्याय समास आदि भेदोंके आवरणकी अपेक्षा असंख्यात लोकको असंख्यात लोकसे गुणा करनेपर जो राशि हो उतने श्रुतज्ञानावरणके भेद हैं। तथा श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है अतः उतने ही मतिज्ञाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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