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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६३१ प्रिकृतियुमितु वशप्रकृतिगळु सत्वरहितमागि नूर मूवत्तंटु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि भुज्यमालमनुष्यतुं कृतकृत्यापेक्षेयिदं नारकनुं तिय्यंचनुं देवनुमब नाल्कुं भंगंगळप्पुबु । सम्यक्त्वप्रकृतियुमं क्षपिसिव क्षायिक सम्यग्दृष्टिगे यितरायुस्त्रितयमुं तीर्थमुमनंतानुबंधिचतुष्क, दर्शनमोहनीयत्रयमंतु पन्नोंदु प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरमूवत्तेनु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लियुं चतुर्गतिजरुगळ भेवविदं नाल्कुं भंगंगळप्पुवु। इंतु प्रथमपंक्तिद्वय दशस्थानंगळोळु त्रयोविंशति भंगंगळप्पुवु। ५ द्वितीयपंक्तिद्वय दशस्थानंगळोळु सप्तत्रिंशद्भगंगळप्पुवु । इतरतृतीयपंक्तिद्वय दशस्थानंगळोळु प्रथमपंक्तिद्वय दशस्थानं गळो पेळदंत त्रयोविंशति भंगंगळप्पुवु। चतुर्थपंक्तिद्वयद दशस्थानंगळोलु द्वितीयपंक्तिद्वयद वंशस्थानंगळोळु पेळ्द सप्तत्रिंशद्भगंगळप्पुवंतसंयतगुणुस्थानदोळु सत्वस्थानंगळु नाल्वत्तरोळ पुनरुक्त समविहीनभंगंगळु नूरिप्पत्तप्पुवु॥ अनंतरं देशसंयतादि गुणस्थानत्रयदोळु भंगगळं पेळपरु : देसतिएसुवि एवं भंगा एक्केक्क देसगस्स पुणो । पडिरासि बिदियतुरियस्सादीबिदियम्मि दो भंगा ॥३८२॥ देशवतादित्रयेष्वेवं भंगा एकैके देशवतस्य पुनः। प्रतिराशि द्वितीयतुरीयस्यादौ द्वितीये वो भगो॥ मानमनुष्यः कृतकृत्यवेदकनारकतिर्यग्देवाश्चेति चत्वारः । क्षायिकसम्यग्दृष्टः सप्तत्रिंशच्छतसत्त्वस्थानेऽपि चतु- १५ . सुगंतिजभेदाच्चत्वारः । एवं इतरतृतीयपंक्तिद्वयदशस्थानेषु प्रथमपंक्तिद्वयदशस्थानवत्त्रयोविंशतिर्भूत्वा चतुर्थपंक्तिद्वयदशस्थानेषु द्वितीयपंक्तिद्वयदशस्थानवत्सप्तत्रिंशद्भूत्वा चासंयते चत्वारिंशत्सत्त्वस्थानेषु समपुनरुक्तान्विना विंशत्युत्तरशतं भंगाः स्युः ॥३८१॥ देशसंयतादित्रये प्रतिस्थानमेकको भंगः । देशसंयते पुनद्वितीयपंक्तिद्वयस्य चतुर्थपंक्तिद्वयस्य च बद्धाबदायुषोः प्रथमद्वितीयस्थानयोहों द्वौ भंगो । तथाहि भंग होते हैं। मिथ्यात्वका क्षय होनेपर एक सौ उनतालीस प्रकृतिरूप तीसरा स्थान है। वहाँ भुज्यमान मनुष्यायु एक ही भंग होता है। मिश्रमोहनीयका क्षय होनेपर एक सौ अड़तीस प्रकृतिरूप चौथा स्थान है। वहाँ भुज्यमान मनुष्यायु और कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टीकी अपेक्षा भुज्यमान नरकायु तिर्यंचायु देवाय इस प्रकार चार भंग होते हैं। सम्यक्त्व मोहनीयका क्षय होनेपर क्षायिक सम्यग्दृष्टीके एक सौ सैंतीस प्रकृतिरूप पाँचवाँ २५ स्थान है । वहाँ भुज्यमान चार आयुकी अपेक्षा चार भंग होते हैं। ____ तीसरी पंक्ति में पहली पंक्तिके बद्धायु अबद्धायुरूप दस स्थानोंमें आहारक चतुष्कको घटानेपर दस स्थान होते हैं। उनमें प्रथम पंक्तिकी तरह तेईस भंग जानना। चौथी पंक्तिमें दूसरी पंक्तिके बद्धायु अबद्धायु रूप दस स्थानोंमें आहारक चतुष्करूप चार-चार प्रकृति घटानेपर दस स्थान होते हैं। उनमें दूसरी पंक्तिकी तरह सैंतीस भंग होते हैं। इस प्रकार ३० असंयतमें सब मिलकर चालीस सत्त्वस्थान और एक सौ बीस भंग होते हैं ॥३८१।। देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त इन तीन गुणस्थानों में असंयतकी तरह ही चालीस-चालीस स्थान होते हैं। और प्रत्येक स्थानमें एक-एक भंग होता है। विशेष इतना है कि देशसंयतमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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