SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९८ गो० कर्मकाण्डे स्तिर्यग्गतिनामकर्मोदयसहचरिततिय्यंगानुपूयं तिर्यग्गतिक्षेत्रक्कुदयिसुगुमा तिर्यग्गतिक्षेत्रप्रमाणमेनितेंदोडे तिय्यंचरु स्थावरंगळं त्रसंगळमप्पुरिंदमा जोवंगळगुत्पत्तियोग्यक्षेत्रमुं सर्वलोकमक्कुमी तिर्यग्लोकक्षेत्रदोळ पुटुव जीवंगळमवावुर्वेदोडे सव्वंश्विय नारकरगळं स्थावरत्रसभेदतिय्यंचरुगळं कर्मभूमिपर्याप्तापर्याप्तमनुष्यरुगळं शतारसहस्रारकल्पद्वयावसानमाद देवर्कळं पुटुवरा जीवंगळु शरीरपरित्यागमं माडि विग्रहगतिथिदं तिय्यंग्गतिक्षेत्रवोळ्पुट्टल्वडि बप्पांगळु तिय्यंगायुस्तिय्यंग्गतिनामकर्मोदयसहचरित तिय्यंगानुपूय॑नामकर्मोवदिदं पूर्वशरीरावगाहनाकारापरित्यागभावमप्पुरिंदमा तिय्यचरोळु सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तजीवजघन्या. वगाहनद घनांगुलासंख्यातेकभागगुणिततिर्यग्गतिक्षेत्रं प्रथमविकल्पमक्कं = ६ द्वितीयावि विकल्पंगळोळेकैकप्रदेशोत्तरक्रमदिदं पूर्वनारकतिर्यग्मनुष्यदेवजीवंगळ शरीरावगाहनविकल्पं. १० गळेल्लमिल्लि मध्यमविकल्पंगळागत्तं पोगि पर्याप्तपंचेंद्रियतिर्यग्जीवोत्कृष्टावगाहनसंख्यातघनां गुलगुणितप्रमितमदु चरमविकल्पमक्कु =६७ मन्तागुत्तं विरलादी अन्ते सुद्घ वढि हिने स्वसेजुदे ठाणा येदिती सूत्रेष्टदिदं तंद सर्वावगाहविकल्पगुणितसर्वक्षेत्रविकल्पंगळिनितप्पुवु ३६७० मनुष्यानुपूर्व्यनामकम्मं मनुष्य क्षेत्रविपाकियप्पुरिदं मनुष्यक्षेत्रक्कुदयिसुगुमा मनुष्यक्षेत्रप्रमाणमु एतावद्विकल्पं स्यात् । = २.६।१।२ तिर्यगानुपूज्यं तिर्यक्षेत्रविपाकीति तत्क्षेत्रं सर्वलोकः । नारकत्रस ४९०१ १५ स्थावरकर्मभूमिमनुष्यसहस्रारपर्यंतदेवानां तत्र गमनकाले आयुर्गतिसहचरिततिर्यगानु पूर्योदयात् सूक्ष्मनिगोद लब्धपर्याप्तजघन्यावगाहनेन गुणिते प्रथमविकल्पः = ६ उत्कृष्टावगाहनेन गुणिते चरमः = ६ १ आदो अंते सुद्धे वढिदिदे रूवसंजुदे ठाणा; इत्येतावद्विकल्पं स्यात् = ६ ३ ३ । मनुष्यानुपूव्यं मनुष्यक्षेत्रविपाकित्वात् प्रमाणको घटानेपर जो शेष रहे उसमें एकसे भाग देकर एक जोड़नेपर जो प्रमाण हो उतने नरकानुपूर्वी के उत्तरोत्तर भेद होते हैं। इसी प्रकार तिथंचानुपूर्वी तियंच क्षेत्रविपाकी है । २० सो तिर्यचका क्षेत्र सर्वलोक है। नारकी, त्रस-स्थावर-तिर्यच, कर्मभूमिया मनुष्य तथा सहस्रार स्वर्ग तकके देव तियंचगतिमें उत्पन्न होते हैं। सो वे आनुपूर्वीके उदयसे पूर्व शरीरके आकारको नहीं छोड़ते । अतः सूक्ष्म निगोदिया लब्धपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना घनांगुलके असंख्यातव भाग प्रमाणसे पूर्वोक्त क्षेत्रको गुणा करनेपर तिथंचानुपूर्वोका प्रथम भेद होता है । तथा उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात धनांगुल प्रमाण है, उससे गुणा करनेपर अन्त२५ का भेद होता है । सो 'आदी अंते सुद्धे इत्यादि सूत्रके अनुसार अन्त में-से आदिको घटाकर उसे एकसे भाग देकर और उसमें एक मिलानेपर जो प्रमाण हो उतने भेद तियंचानुपूर्वीके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy