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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दयाद्भवति तदानुपूर्व्यनाम एंदितु नामतः सिद्धमप्प क्षेत्रविपाकी सामान्यानुपूर्व्यनामकम नारकानुपूज्यं तिर्यगानुपूव्यं मनुष्यानुपूव्यं देवानुपूयं मेंदितु चतुर्विधमक्कुमल्लि नारकानुपूर्व्य नामकम्म नरकक्षेत्रविपाकियप्पुरिदं नरकक्षेत्रदोदयिसुगुमा नरकक्षेत्रप्माणमेनितंदोडे नारकरेल्ललं असपंचेंद्रियपर्याप्तजीवंगळेयप्पुरिदमा नरकक्षेत्र त्रसनाळदोळेयागल्येळकुमप्पुरिदं सनालप्रमितमेकैकरज्जु भुजकोटिप्रमितमुष्ट्रादिमुखाकारदोळुपरितलोपपादस्थानदोसल्लदै मते- ५ ल्लियुं बिलदोळुत्पत्तियिल्लप्पुरिदं प्रमाणसूच्यंगुलासंख्यातैकभागायामगुणितमप्प नरकक्षेत्रदोळेतप्प जीवंगळु बंदु पुटुगुम दोडे तिय्यंग्मनुष्यपंचेंद्रियत्रसपर्याप्तजीवंगळ पूर्वशरीरनं बिटु विग्रहगतियिदं स्वयोग्योत्पत्तिनरकस्थानक्के बांगळ नरकानुयूव्योपयदिदं पूर्वाकारा. विनाशमुंटप्पुरिंदमा तिय॑ग्मनुष्यपंचेंद्रियत्रसपर्याप्तजीवशरीरजघन्याबगाहनद धनागुल संख्यातेक. भागदिदं गुणिसिदोडे प्रथमविकल्पसक्कू =२५६ द्वितीयादिवि इल्पंगळोळेकैकादेशोतरक्रम- १० ४९। मध्यमविकल्पंगळु नडदु संजिपंचेंद्रियपानजीवावगाहनगुणितक्षेत्र चरमविकल्पमा = २। ६७ मिन्तागुत्तं विरलु आदीयंते सुद्धे दढिहिदे रूबसंजुदे ठाणा। एंछ लब्धं सर्धविकल्पंगकि इनितप्पुवु = २६ ७७ तिर्यगानुपूनालकमं तिर्यग्गतिक्षेत्रविपाकियप्पुरिदं तिर्यगायु ४९० । ७ वरणमात्राणि स्युः = a = २ सर्वा प्रकृतयो नामकर्मप्रत्ययाः इति नारकानुपूव्यं नरकक्षेत्रविपाकित्वातत्क्षेत्रमेकरज्जुप्रतरमुष्ट्रादिमुखाकारेभ्योऽन्यत्रोत्पत्त्यभावात् प्रमाणसूच्यंगुल संख्यातकभागायामगुणितं तिर्यम्मनु- १५ व्यपंचेंद्रियपर्याप्तानां तत्र गमनकाले नरकानुपूर्योदयेन पूर्वाफाराविनाशाजघन्यावगाहनांगुलसंख्यातेकभागेन गुणिते प्रथमविकल्पः = २ ६ संख्यातचनांगुलैर्गुणिते चरमः = २ ६ १ आदी अंते सुद्धे इत्यादिना ४९ a __सब प्रकृतियाँ नामकर्म के निमित्तसे होती हैं। अतः नामकर्मकी प्रकृतियोंमें आनुपूर्वी प्रकृति के उत्तरोत्तर भेद कहते हैं। आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी है। अतः क्षेत्रकी अपेक्षा उसके भेद होते हैं । नारकानुपूर्वी नरकक्षेत्र विपाकी है । नरकक्षेत्र एक राजु प्रतरप्रमाण है वहाँ उष्ट्रादि २० मुखाकारोंके सिवाय अन्यत्र उत्पत्ति नहीं होती। अतः प्रमाणरूप सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आयामसे उसे गुणा करें। तथा पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य जब नरकको जाते हैं तब नारकानुपूर्वीका उदय होता है। उससे पहले तिर्यंच या मनुष्य पर्यायमें जो आकार होता है उसका नाश नहीं होता। इससे वहाँ पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यच या मनुष्यकी जघन्य अवगाहना तो घनांगुलके संख्यातवें भाग है। उससे पूर्वोक्त क्षेत्रको गुणा २५ करनेपर जो क्षेत्रका प्रमाण हो सो नरकानुपूर्वी का पहला भेद है । उन्हींकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात धनांगुल प्रमाण है । उसको पूर्वोक्त क्षेत्रसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो सो नरकानुपूर्वीका अन्तिम भेद है। 'आदी अंते सुद्धे वडिहिदे रूवसंजुदे ठाणा' इस सूत्रके अनुसार अन्तिम भेदमें जितना क्षेत्रके प्रदेशोंका प्रमाण हो उसमें से पहले भेदके क्षेत्रके प्रदेशोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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