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गो० कर्मकाण्डे
२१
२।२
व वि १६।४।०२
प्रववि १६४१२
इव वि १६।४।०२
प्र व वि १६।४।२ इ वि १६।४।२।२ लब्ध · न
फ स्था १
लब्ध २२
फ स्था १
विकल्प ० २।२।२
२
१
२२
२।३
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अपू
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प्र व वि १६।४।२ फ स्था १।इव वि १६३४२२ लब्धस्थानविकल्प
२।२।२।२।
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व वि १६ । ४ । १ज
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व वि १६।४।
२। १२।
२२।३ ।
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२।
विशेषार्थ-एक गुणहानिमें स्पधकोंका प्रमाण जगतश्रेणिमें दो बार असंख्यातका भाग देनेसे जो प्रमाण आवे उतना कहा था। सो उतने ही अपूर्व स्पर्धक होनेपर जो योगस्थान होता है उसके जितने अविभाग प्रतिच्छेद हैं वे जघन्य योगस्थानके अविभाग प्रतिच्छेदसे दूने हैं। उससे ऊपर उतने ही अपूर्व स्पर्धक होनेपर जो योगस्थान होता है वह उस योगस्थानसे भी दूना होता है। इस प्रकार क्रमसे दूना-दूना होते संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक
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