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________________ ४०१ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नाल्कुमानुपूव्यंगळगे क्षेत्रविषयभेददिदमुत्तरोत्तरप्रकृतिविकल्पंगळादुर्विव मुन्निन साधिकद्विगुणाऽ संख्यातलोकमतिज्ञानोत्तरोत्तरप्रकृतिगुणकारदो साधिक माडिदोडे प्रकृतिसंग्रहमिनितु प्रमाणक्कु = a 3 ० २ मुळिदुत्तरप्रकृतिगळ उत्तरोत्तर प्रकृतिगळगुपदेशमिल्लद पोटदु । इंतु प्रकृतिसंग्रहरचनानुसारमागि व्याख्यानिसल्पटुदु । बहुश्रु तरुगळिदं शोधिसल्पडुवुदु । अनंतरं स्थितिविकल्पंगळुमनवर स्थितिबंधाध्यवसायंगळगल्प बहुत्वमं पेळ्दपरु : तेहिं असंखेज्जगुणा ठिदि अवसेसा हवंति पयडीणं । ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणा तत्तो असंखगुणा ॥२५९॥ तैरसंख्येयगुणा स्थितिविशेषा भवंति प्रकृतीनां । स्थितिबंधाध्यवसायस्थानानि ततोऽसंख्येय गुणितानि भवंति ॥ प्रकृतिगळ सर्वस्थितिविकल्पंगळु तैरसंख्येयगुणितानि भवति तत्प्रकृतिसंग्रहभेदंगळं १० नोडलुमसंख्यातगुणितंगळप्पु । स्थितिबंधाध्यवसायस्थानानि स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळु ततोऽसंख्येयगुणितानि अशेषस्थितिविकल्पंगळं नोडलुमसंख्येयगुणितंगळप्पुवु अदेते दोडे विवक्षितकज्ञानावरणविशेषोत्तरोत्तरप्रकृतिजघन्यस्थितियन्तःकोटीकोटिसागरोपमप्रमितमक्कुमदु संख्यातपल्यप्रमितमक्कु। ५१। मदर द्वितीयादिस्थितिविकल्पंगळु समयोत्तरवृद्धिक्रदिदं पोगि चरमस्थितिविकल्पमदं नोडलु संख्यातगुणमक्कु । प११। मन्तागुत्तं विरलु आदी। ५ । अन्ते। १५ २० स्यात् = ९०० । ६ ११ अमोभिरानुपूर्वोत्तरोत्तरभेदैः प्रागानीतज्ञानावरणोत्तरभेदेषु साधिकीकृतेषु प्रकृतिसंग्रहः एतावान् स्यात् = a a २ शेषोत्तरप्रकृत्युत्तरोत्तरभेदानामुपदेशो नास्ति । इत्ययं संग्रहो रचनानुसारेण व्याख्यातो बहुश्रुतैः शोधितव्यः ॥२५८॥ तेभ्यः प्रकृतिसंग्रहभेदेभ्यः प्रकृतीनां सर्वस्थितिविकल्पा असंख्यातगुणा भवंति । कुतः ? एकप्रकृतिसूत्रके अनुसार अन्त में-से आदिको घटाकर एकका भाग देकर एक मिलानेपर जो प्रमाण हो उतने भेद देवगत्यानुपूर्वी के जानना । आनुपूर्वी के इन उत्तरोत्तर भेदोंको पूर्वोक्त ज्ञानावरणके उत्तरोत्तर भेदोंमें मिलानेसे प्रकृति संग्रह होता है। टीकाकारका लिखना है कि शेष प्रकृतियोंके उत्तरोत्तर भेदोंका उपदेश प्राप्त नहीं है। यह प्रकृतिसंग्रह रचनाके अनुसार किया है। बहश्रतोंको इसको शुद्ध कर लेना चाहिए ।।२५८॥ -- प्रकृतिसंग्रहसे प्रकृतियोंकी स्थितिके भेद असंख्यात गुने हैं। क्योंकि जघन्य स्थितिको उत्कृष्ट स्थितिमें-से घटाकर एक समयसे भाग दे और उसमें एक मिलानेसे जघन्य स्थितिसे उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त एक-एक स्थिति के संख्यात पल्य प्रमाण भेद होते हैं। यदि एक स्थितिके भेद संख्यात पल्य प्रमाण होते हैं तो पूर्वोक्त सब उत्तरोत्तर प्रकृतियोंके भेदोंकी स्थितिके भेद कितने होंगे ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रकृति संग्रहके प्रमाणसे संख्यात पल्य गणे स्थितिके भेद होते हैं। इन स्थितिके भेदोंसे स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात गुने हैं। जिन । क-५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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