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________________ ५५४ गो० कर्मकाण्डे चत्तारिवि खेत्ताई आउगबंधेण होइ सम्मत्तं । अणुवदमहव्वदाइंण लहइ देवाउगं मोत्तुं ॥३३४॥ चतुर्णा क्षेत्राणामायुबंधेन भवति सम्यक्त्वं । अणुव्रतमहाव्रतानि न लभते देवायुमक्त्वा ॥ चतुर्गतिगळायुबंधमादुदरिंदम जीवक्के सम्यक्त्वमक्कु मल्लि देवगतिगायुबंधमागिई ५ जीवक्कणुव्रतमहाव्रतंगळु संभविसुक्वा देवायुष्यमं बिटुलिद नरकतिर्यग्मनुष्यायुष्यंगळु बंधमाव भुज्यमान तिव्यंचनणुव्रतमं पडेयल्नेरेयं । भुज्यमानमनुष्यनादोडणुवतमहावतंगळं पडेयल्ने यनेके दोडा गतित्रयबध्यमानायुष्यरुगळ्गे अणुव्रतमहाव्रतपरिणामकारणविशुद्धिकषायपरिणामस्थानोदयंगळु संभविसवप्पुरिदं ॥ णिस्यतिरिक्खसुराउग सत्ते ण हि देससयलवदिखवगा । अयदचउक्कं तु अणं-अणियट्टीकरणचरिमम्मि ॥३३५॥ नरकतिर्यग्देवायःसत्त्वे न हि देशसकलवतिक्षपकाः असंयतचतुष्कं त्वनंतानुबंधिनोऽनिव. तिकरणचरमे ॥ नरकायुष्यसत्वम तिर्म्यगायुष्यसत्वमुं देवायुष्यसत्व, भुज्यमानबध्यमानोभयप्रकारदिवं सत्वमुंटागुत्तं विरलु यथासंख्यमागि देशवतिगळुसकलवतिगढ़ क्षपकरुं न हि इल्ल । तु मत्तम चतुर्णा क्षेत्राणां गतीनां संबंध्यायुबंधेनापि जीवस्य सम्यक्त्वं भवति । तत्र देवगत्यायुर्मुक्त्वा शेषकतरगतिबद्धायुष्कस्तिर्यङ् अणुव्रतं मनुष्योऽणुव्रतं महाव्रतं वा न लभते तेषां तत्तद्वतपरिणामकारणविशुद्धकषायपरिणामस्थानोदयासंभवात् ॥ ३३४ ॥ नरकतिर्यग्देवायुस्सु भुज्यमानबध्यमानोभयप्रकारेण सत्त्वेषु सत्सु यथासंख्यं देशवताः सकलव्रताः क्षपका चारों क्षेत्र अर्थात् गति सम्बन्धी आयुका बन्ध करनेपर भी जीवके सम्यक्त्व हो सकता है । किन्तु देवगति सम्बन्धी आयुको छोड़कर शेष गतियों में से किसी एक गतिकी आयुका बन्ध करनेवाले तिर्यचके अणुव्रत और मनुष्यके अणुव्रत अथवा महाव्रत नहीं हो सकते; क्योंकि उनके उन-उन व्रतरूप परिणामोंके कारण विशुद्ध कषाय स्थानोंकी उत्पत्ति असम्भव है। __ विशेषार्थ-यदि पहले चारों आयुमें-से किसी भी आयुका बन्ध हो चुका हो और पीछे सम्यक्त्वको धारण करे तो उसमें कोई दोष नहीं है। ऐसा हो सकता है। किन्तु यदि २५ पहले नरकायु या तिथंचायु या मनुष्यायुका बन्ध हुआ हो तो पीछे अणुव्रत या महाव्रत धारण नहीं कर सकता। एक देवायुका बन्ध पहले हुआ हो तो अणुव्रत महाव्रत धारण करना सम्भव है। इसका कारण यह है कि अन्य आयुका बन्ध कर लेनेवाले जीवोंके ऐसे विशुद्ध परिणाम नहीं होते जो व्रत परिणामके कारण होते हैं। यह कथन परभवकी आयुका बन्ध कर लेनेवालोंकी दृष्टिसे है। परभवकी आयुका बन्ध जिसने नहीं किया है वह तो उसी ३० भवसे मोक्ष भी जा सकता है ।।३३४॥ जिस वर्तमान आयुको जीव भोगता है उसे मुज्यमान कहते हैं और परभवकी जो आयु बाँधी उसे वध्यमान कहते हैं। भुज्यमान और बध्यमान दोनों प्रकारकी नरकायु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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