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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिधः अनंतर प्रकृतिसत्वम गुणस्थानदोळ पेळ्दपरु :-- तित्थाहारा जुगवं सव्वं तित्थं ण मिच्छगादितिये । तस्सत्तकम्मियाणं गुणठाणं ण संभवइ ॥३३३३॥ तीर्थाहारा युगपत्स तोत्र्भ न मिथ्पादृष्टयात्रिये । तत्सत्त्वकम्र्मणां तद्गुणस्थानं न संभवति ॥ तोहारा युगपन्न तीर्थकरनाममुनाहारकद्वयमुं मिथ्यादृष्टियोळ एकजीवापेक्षयिद युगपत्सत्वमिल्ल । अदेते'दोडे तीर्थसत्यमुळठनोळाहारकद्वयसत्वमिल्ल। आहारकद्वयसत्वमळळ. नोळु तीर्थसत्वमिल्ल । उभयसत्वमुळ्ळ जीवनी मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमं पोनप्युरिदं । नानाजीवापेशयि युगपत्सत्वमुंटु । अदु कारणमागि मिथ्यादृष्टियोल नूरजाल्वत्ते टुं प्रकृतिजिगे सत्यमबहुँ १४८ ॥ सासावननोज, सनं न तीर्थमुभाहार कद्वयमुकजीवापेक्षयिषमुं नानाजीवापेक्ष. १० यिदमुं युगपरक्रमदिदमुं सत्वमिल्ल । मिश्रनोळ तीत्यनामसत्त्वं न यिल्लेके घोडे तत्सत्वकर्मणां आ तीाहारकद्वयसत्वयुतजीवंगळो तद्गुणस्थानं न संभवति तीर्थाहारकद्वयं गुगपरसंभविसुष मिथ्यावृष्टिगुणस्थानमुं तीत्थंमुमाहारकद्वयमुं संभविसुव सासावनगणस्थानमु तोत्थं संभविसुव मिश्रगुणस्थानमुं संभविसवप्पुक्दुकारणमागि मिथ्यादृष्टियोछ नूरनाल्वत टु प्रकृतिसत्यम १४८ । सासावननोळ नूरनाल्वत्तम्वु प्रकृतिसत्वम १४५ । मिश्रलोळु नूरनाल्व तेलु प्रकृतिसत्वभुमक्कुं १४७॥ १५ अथ प्रकृतिसत्त्वं गुणस्थानेष्वाह मिध्यादृष्टी तीर्थकृत्त्वसत्त्वे आहारकद्वयसत्त्वं न, आहारकद्वयसत्त्वे च तीर्थकृस्वसत्त्वं न, उभयसत्त्वे तु मिथ्यात्वाश्रयणं न । तेन तद्वयं तत्र युगपदेकजीवापेक्षया न । नानाजीवापेक्षयास्ति (ततोऽष्टचत्वारिंशदुत्तरशतंसत्त्वं ) । सासादने तदुभयमपि एकजीवापेक्षयाऽनेकजोवापेक्षया च क्रमेण युगपहा सत्त्वं नेति (पंचचत्वारिंशदुत्तरशतं १४५ )। मिश्रे तीर्थकरत्वसत्त्वं न ( सप्तचत्वारिंशदुत्तरशतं सत्त्वं १४७ )। कुतः ? तत्सत्त्वकर्मणां २० जीवानां तद्गुणस्थानं न संभवतीति कारणात् ॥ ३३३ ॥ आगे गुणस्थानों में प्रकृतियोंकी सत्ता कहते हैं मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें जिसके तीर्थकरकी सत्ता होती है उसके आहारकद्विककी सत्ता नहीं होती और जिसके आहारकद्विककी सत्ता होती है. उसके तीर्थकरकी सत्ता नहीं होती। जिसके दोनोंकी सत्ता होती है वह मिथ्यात्वमें आता ही नहीं। इसलिए ये दोनों २५ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें एक साथ एक जीवकी अपेक्षा नहीं हैं। किन्तु नाना जीवोंकी अपेक्षासे मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तीर्थंकर और आहारकद्विक दोनोंकी सत्ता होनेसे सत्त्व एक सौ अड़तालीस १४८ है । सासादनमें ये दोनों ही एक जीव और नाना जीवकी अपेक्षा क्रमसे या एक साथ नहीं रहते अतः वहाँ सत्त्व एक सौ पैतालीस । मिश्रमें तीर्थकरकी सत्ता न होनेसे सत्त्व एक सौ सैंतालीस; क्योंकि जिनके इन प्रकृतियोंकी सत्ता होती है उनके ये ३० गुणस्थान नहीं होते ॥३३३॥ १. कोष्ठान्तर्गतः पाठो नास्ति ब प्रतो । क-७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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