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________________ गो० कर्मकाण्डे आद्यतनबद्धाबद्धापुष्यरुगळ दशस्थानंगळोळु पेळद भंगंगळोडर्न तृतीयबद्धाबद्धायुष्यरुगळ दशस्थानंगळ भंगंगळ समानंगळप्पुवु । द्वितीयपंक्तिय बद्धाबद्धायुष्यरुगळ कास्थानंगळोळ पळव भंगंगळोडने चतुर्थ पंक्तिबद्धाबद्वायुष्यरुगळ वशस्थानंगळ भंगंगळु समानंगळवु । इंतसंयतन नाल्वत्तुं स्थानंगळोळु नूरिष्पत्तु भंगंगळप्पुववर भेदं पेळल्पडुगुमदे ते बोर्ड - बद्धायुष्यनप्प असंयतन ५ प्रथम पंक्ति पंचस्थानं गळु सतीर्थस्थानंगलप्पुवरिदं भुज्यमानबध्यमानायुर्द्वयमल्लवितरायुष्यमों कुं तीर्थसत्व मुल्लंगे तिगायुष्य सत्व मिल्लप्पुदरिदं तिर्य्यगायुष्यमुमंतु प्रकृतिद्वयर हितमागि नूरनाल्व - तारु प्रकृतिसत्वस्थानदो भुज्यमानमनुष्यं बध्यमाननरकायुष्यनु । भुज्यमानमनुष्यं बध्यमानदेवायुष्यनु । भुज्यमाननारकं बध्यमानमनुष्यायुष्यनुं । भुज्यमानदेवं बध्यमानमनुष्यनु । में वितु नालकुं भंगंगळोळु समभंगंगळप्प कडेयबेरडुं भंगंगळं बिट्टु भंगद्वयमक्कुमत्तमा स्थानदोळु अनंतानुबंधि १० चतुष्टयमं विसंयोजिसिदातंगे अन्यतरायुष्यमों दु तिय्यंगायुष्यमुमनंतानुबंषिचतुष्कमुमंतु षट् प्रकृतिरहितमागि नूरनात्वतेरडु प्रकृतिसत्वस्थानदोळं भुज्यमानमनुष्यं बध्यमाननारकायुष्यनु । विशत्यत्तरशतं भंगा भवंति । तद्भेद उच्यते बद्धायुष्कस्यासंयतस्य प्रथमपंक्तिपंचस्थानानां सतीर्थत्वात्तिर्यगायुषा भुज्यमानबध्यमानम्या मितरायुषा च रहितषट्चत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने भंगा: भुज्यमानमनुष्यबध्यमाननरकायुष्कः १ भुज्यमानमनुष्यबध्यमान१५ देवायुकः २ भुज्यमाननारकबध्यमान मनुष्यायुष्कः ३ भुज्यमानदेवबध्यमानमनुष्यायुष्कश्चेति चतुर्षु समद्वये त्यक्ते द्वौ भंगौ भवतः । तथा विसंयोजितानंतानुबंधिनस्तच्चतुष्कस्यान्यतरायु स्तियंगायुषोश्चाभावाद् द्वाचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने पुनः क्षपितमिथ्यात्वस्य तस्यैकचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने पुनः क्षपितमिश्रस्य चत्वारिशच्छतसत्त्वस्थाने पुनः क्षपितसम्यक्त्व प्रकृते रेकान्नचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थानेऽपि तौ भुज्यमानमनुष्यबध्यमान ६२६ बद्धा और पाँच अबद्धायु के दस स्थानों में जो भंग कहे हैं उन्हींके समान चौथी पंक्ति के दस २० स्थानों में भंग जानना । इस तरह असंयतके चालीस स्थानोंमें एक सौ बीस भंग होते हैं। अब उन भंगों को कहते हैं 1 बद्धायु असंयत सम्यग्दृष्टीके पहली पंक्ति सम्बन्धी जो पाँच स्थान हैं वे तीर्थंकर प्रकृति सहित हैं । और तिर्यंच में तीर्थंकरकी सत्ता नहीं होती । अतः प्रथम पंक्तिके प्रथम स्थानमें भुज्यमान या बध्यमान तिर्यंचायु और एक कोई अन्य आयुके बिना एक सौ २५ छियालीस प्रकृतिरूप है । उसमें भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु, भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान देवायु, भुज्यमान नरकायु बध्यमान मनुष्यायु, भुज्यमान देवायु बध्यमान मनुष्यायु ये चार भंग होते हैं । इनमें से भुज्यमान मनुष्यायु और बध्यमान नरकायु तथा भुज्यमान नरकायु बध्यमान मनुष्यायु भंग समान होनेसे पुनरुक्त है। तथा भुज्यमान मनुष्याय बध्यमान देवायु और बध्यमान देवायु बध्यमान मनुष्यायु यह भंग भी समान ३० होने से पुनरुक्त है । अतः दो भंगों के पुनरुक्त होनेसे शेष दो भंग होते हैं। प्रथम पंक्तिका दूसरा स्थान जिसके अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन हुआ उसके अनन्तानुबन्धी चार, तिचा और एक अन्य आयु इन छह बिना एक सौ बयालीस प्रकृतिरूप है। जिसके मिथ्यात्व प्रकृतिका क्षय हुआ है उसके एक सौं इकतालीस प्रकृतिरूप तीसरा स्थान है, जिसके मिश्र मोहनीयका क्षय हुआ है उसके एक सौ चालीस प्रकृतिरूप चौथा स्थान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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