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________________ ३४२ गो० कर्मकाण्डे तंगळं विक्रिति रूपंप्रति द्विकम कोट्टु वग्गितसंवर्गागं माडुत्तिरलावुदो दु लब्धराशियदुवुम संख्यातमैयक्कुमा राशि छेदराशिगे हारमक्कुमप्युर्दारदम संख्यातरूपहीन वर्गशलाकेगळे नानागुणहानिशलाकेगळिलिग बेडु निर्बाधबोधविषयमक्कुमी सर्वयोगस्थानंगळोळगे पदिनाकुं जीवसमासंगळ उपपादयोगएकातानुवृद्धियोग परिणामयोग में बी योगत्रयंगळ जघन्योत्कृष्टविषयंगळ ५ ८४ भत्तनालकुं पदंगळदमल्पबहुत्वमं गायानवकदिदं पेळदपरु : एतेषां स्थानानां जीवसमासानामवरवरविषयं । चतुरशीतिपदैरल्पबहुत्वं प्ररूपयामः ॥ ई पेळल्पट्ट् सर्व्वयोगस्थानविकल्पंगळ जीवसमासेगळ जघन्योत्कृष्टविषयमं च शब्ददिदमु१० पपादयोगमेकान्तानुवृधियोग परिणामयोग में ब योगत्रयमनाश्रयिसि चतुरशीतिपदंगळदमलपबहुत्वमं वेळ मेंदु पेळपक्रमिसि सुंदण सूत्रमं पेदपरु : १५ २० देसि ठाणाणं जीवसमासाण अवरवरविषयं । चउरासीदिपदेहिं अप्पा बहुगं परूवेमो ।। २३२ ॥ ३० सुमगलद्धि जहणं तण्णिव्वत्ती जहण्णयं तत्तो । लद्धियपुण्णुक्कस्सं चादरलद्धिस्स अवरमदो || २३३॥ : सूक्ष्मल त्रिजघन्यं तन्निर्वृतेज्जं चन्यकं ततः । लब्ध्यपूर्वोत्कृष्टं बादरलब्धेर वरमतः ॥ इल्लि एकेंद्रिय सूक्ष्मबादरद्वींद्रियत्रींद्रिय चतुरिद्रिय असंज्ञिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेद्रिथंगळगे संदृष्टि पत्यवर्गशलाका माग्यो भवंति व कुतः पत्यवर्गशलाकाप्रमितद्विक संवर्गोत्पन्नपत्यच्छेद राशेर्हीन रूपासंख्यातमात्र द्विक संवर्गोत्पन्नासंख्यातस्य हारत्वसंभवात् || २३१|| अयानंतरं अभिधेयस्य प्रतिज्ञासूत्रमाह - एतेषामुतयोगस्यानानां मध्ये चतुर्दशजीवसमासानां जघन्योत्कृष्टविषयमल्यबहुत्वं चशब्दात् उपपादादि - योगत्रयमाश्रित्य चतुरशीतिपदेः प्ररूपयामः ॥ २३२॥ तद्यया - अत्र सूक्ष्मवाद केंद्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपंचेंद्रियाणां संदृष्टिः भागदार होता है। आशय यह है कि असंख्यातहीन पल्की वर्गशलाकाका जो प्रमाण है उतनी बार जघन्य योगस्थान दूना होनेपर उत्कृष्ट योगस्थान होता है । इससे इसको नाना गुणहानि शलाका कहा है। इस नाना गुगहानि प्रमाण दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर पल्यके अर्द्धच्छेदोंके असंख्यातवें भागमात्र अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है । उससे २५ जघन्यको गुणा करनेपर उत्कृष्ट योगस्थानके अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण होता है । इस तरह योगस्थानोंका प्रमाण होता है || २३१|| आगे कथन की प्रतिज्ञा करते हैं ऊपर, कहे इन योगस्थानोंमें चौदह जोत्र समासों के जघन्य उत्कृष्टकी अपेक्षा और 'च' शब्द उपपाद आदि तीन योगोंकी अपेक्षा चौरासी पदोंके द्वारा अल्पबहुत्व कहते हैं ||२३२|| यहाँ सूक्ष्म, बादर, एकेन्द्रिय, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रियकी संदृष्टि इस प्रकार जानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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