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________________ गो० कर्मकाण्डे एकेंद्रियद्वीवियत्रींद्रियचतुरिंद्रियपंचेंद्रियजातिनामकमंगळगे तंतम्म द्रव्येद्रियंगळु नोकर्म द्रव्यकम्मंगळप्पुवु। शरीरनामकर्मक्के शरीरनामकर्मोदयजनितदेहस्कंधमे नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कु। ओरालियवेगुम्विय आहारयतेजकम्मणोकम्म । ताणुदयजचउदेहा कम्मे विस्संचयं णियमा ॥८१॥ औदारिकवैक्रियिकाहारक तैजसकर्मणां नोकम तेषामुदयजन्तुहाः कार्मणे विनसोपचयो नियमात् ॥ __ औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसशरीरनामकम्मंगळगे तेषां तंतम्म उदयजनितचतुर्दैहाः उदयसंजनितचतुर्दैहंगळु यथासंख्यमागि तंतम्मौदारिकादिशरीरवग्गणेगळु तंतम्म नोकर्मद्रव्य१० कम्मंगळप्पुवु। कार्मणशरीरनामकर्मक्के विस्रसोपचयं नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कुं। बंधणपहुडिसमण्णियसेसाणं देहमेव णोकम्म । णवरि विसेसं जाणे सगखेतं आणुपुव्वीणं ।।८२।। पंधनप्रभृतिसमन्वितशेषाणां देह एव नोकर्म। नवीनं विशेषं जानीहि स्वक्षेत्रमानुपूाणां॥ बंधनप्रभृतिपुद्गल विपाकिगळसमन्वितशेषजीवविपाकिगळ्गे देहमे नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कु१५ मेक दोडे तत्तक्रियमाणपुद्गलरूपक्कयुं जीवभावक्कयु सुखादिगळप्प कायंक्कं शरीरवर्गणेगळु पादाननिमित्तत्व प्रसिद्धत्ववणि । क्षेत्रविपाकिगळप्पानुपूवव्यंगळगे तंतम्मक्षेत्रमे नोकर्म द्रव्यकर्ममक्कुमें बी पोसतप्प विशेषमं नोनरि शिष्य येंदु संबोधिसल्पदुदु । एकेन्द्रियादिपञ्चजातीनां स्वस्वद्रव्येन्द्रियाणि नोकर्मद्रव्यकर्म । शरीरनाम्नः स्वोदयजदेहस्कन्धः नोकर्मद्रव्यकर्म ॥८॥ औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसशरीरनामकर्मणां उदयजतत्तच्छरीरवर्गणाः तत्तन्नोकर्मद्रव्यकर्म भवति । कार्मणस्य विस्रसोपचय एव ॥८॥ बन्धनप्रभृतिपुद्गलविपाकिसमन्वितशेषजीवविपाकिनां देह एव नोकर्मद्रव्यकर्म । तत्तत्क्रियमाणस्य पुद्गलरूपस्य जीवभावस्य सुखादिरूपस्य कार्यस्य शरीरवर्गणानामेवोपादाननिमित्तत्वप्रसिद्धेः । क्षेत्रविपाक्यानु पूर्व्याणां स्वस्वक्षेत्रमेव नोकर्मद्रव्यकर्मेति नवीनं विशेषं जानीहि ।।८२॥ २५ एकेन्द्रिय आदि पाँच जातियोंका नोकर्म द्रव्यकर्म अपनी-अपनी द्रव्येन्द्रियाँ हैं । शरीरनामके नोकर्म द्रव्यकर्म अपने-अपने उदयसे बने शरीररूप स्कन्ध हैं ।।८०॥ औदारिक, वैक्रियिक, आहारक और तैजस शरीर नामकोका अपने-अपने उदयसे प्राप्त हुई उस-उस शरीर सम्बन्धी वर्गणा अपना-अपना नोकर्म द्रव्यकर्म होता है। कार्मणका नोकर्म विस्रसोपचय ही है ।।८१॥ ३० बन्धनसे लेकर पुद्गलविपाकी प्रकृतियों सहित शेष रही जीवविपाकी प्रकृतियोंका नोकम द्रव्यकर्म शरीर ही है। क्योंकि उनके द्वारा किया गया पुद्गलरूप भाव और जीवभाव तथा सुखादि रूप कार्यका उपादान कारण शरीर सम्बन्धी वर्गणा ही है किन्तु क्षेत्रविपाकी आनुपूर्वीनामकोका अपना-अपना क्षेत्र ही नोकर्म द्रव्यकर्म है इतना विशेष जानना ।।२।। १. आ. पुद्गलजीव। २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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