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________________ २२२ गो० कर्मकाण्डे उत्तरपयडीसु पुणो मोहावरणा हवंति हीणकमा । अहियकमा पुण णामा विग्धा य ण भंजणं सेसे ॥१९६॥ उत्तरप्रकृतिषु पुनर्मोहावरणानि भवन्ति होनक्रमाः। अधिकक्रमाः पुनर्नामानि विघ्नाश्च न भंजनं शेषे॥ उत्तरप्रकृतिगळोल पुनः मत्त मोहावरणानि मोहनीयंगळं ज्ञानावरणंगळु दर्शनावरणंगळं हीनक्रमा भवंति हीनक्रमंगळप्पुवु । पुनः मत्ते नामकर्मप्रकृतिगळु मन्तरायकर्मप्रकृतिगळं अधिकक्रमा भवंति अधिकक्रमंगळप्पुवु। शेषवेदनीयगोत्रायुष्यंगळोळु द्रव्यविभंजनमिल्लेके दोडे तत्प्रकृतिगळं बंधकालदोळे कैकंगळे बंधमप्पुवितरंगळगे बंधमिल्लप्पुरिदं मूलप्रकृतिगोळु पेन्द द्रव्यमनितुं विवक्षितबंधप्रकृतिगेयकुं। युगपद्विवक्षितबंधंगळ्गमितरंगळगं बंधमिल्लप्पुरिदं । १० सातमुमुच्चैर्गोत्रभु देवायुष्य, बंधमप्पागळु इतरासातं नोचैर्गोत्र नरकतिर्यग्मनुष्यायुष्यंगळ्गे बंधमिल्लदु कारणदिदं मूलप्रकृतिगोळु पेद द्रव्यमिवक्कयक्कुमा असातनीचैग्र्गोत्रादिगळ बंधमप्पागळु सातादिगळ्गे बंधमिल्लप्पुरिदं । मूलप्रकृतिद्रव्यमनितुविवक्कक्कुमें बुदत्थं ॥ ___ अनंतरं घातिकमंगळोळु सर्वघातिप्रकृतिगळ्गं देशघातिप्रकृतिगळ्गं द्रव्यविभंजनक्रमम पेळदपरु : सव्वावरणं दव्वं अणंतभागो दु मूलपयडीणं । सेसा अणंतभागा देसावरणे हवे दव्वं ।।१९७॥ सर्वावरणद्रव्यमनन्त भागस्तु मूलप्रकृतीनां । शेषानंता भागाः देशावरणे भवेत् द्रव्यं ॥ उत्तरप्रकृतिषु पुनः मोहनीयज्ञानदर्शनावरणानि हीनक्रमाणि भवन्ति । नामान्तरायो पुनः अधिकक्रमो भवतः । शेषवेदनीयगोत्रायुस्सू द्रव्यविभजनं नास्ति, तेषां एकैकस्या एव तदुत्तरप्रकृतेर्बन्धात । तेन तन्मल२० प्रकृत्युक्तद्रव्यं सर्वमेव स्यात् इत्यर्थः ॥१९६॥ अथ घातिकर्मसु सर्वघातिदेशघातिद्रव्यविभञ्जनक्रममाह __उत्तर प्रकृतियोंमें मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण ये तो हीनक्रम होते हैं अर्थात क्रमसे घटता-घटता द्रव्य इनकी उत्तर प्रकृतियोंमें दिया जाता है। जैसे ज्ञानावरणमें मतिज्ञानावरणसे श्रुतज्ञानावरणका द्रव्य थोड़ा है। उससे अवधि ज्ञानावरणका द्रव्य थोड़ा है। उसे मनःपर्ययज्ञानावरण का द्रव्य थोड़ा है। तथा नामकर्म और अन्तराय कर्मको उत्तर २५ प्रकृतियोंमें क्रमसे अधिक-अधिक द्रव्य दिया जाता है। जैसे अन्तराय कर्म में दानान्तरायके द्रव्यसे लाभान्तरायका द्रव्य अधिक है। उससे भोगान्तरायका द्रव्य अधिक है। शेष वेदनीय, गोत्र आयुकर्ममें बँटवारा नहीं है क्योंकि इनकी एक-एक ही प्रकृति बँधती है। जैसे वेदनीय कर्मके भेदोंमें-से या तो साताका ही बन्ध होता है या असाताका ही बन्ध होता है। दोनोंका बन्ध एक समय में नहीं होता। इसी तरह गोत्रकर्म में-से या तो नीचगोत्रका बन्ध होता है या उच्चगोचका बन्ध होता है। आयु भी एक समय में एक ही बँधती है। अतः इन तीनों कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियों में बँटवारा नहीं है। जिस समयमें इनकी जिस उत्तर प्रकृतिका बन्ध होता है उस समयमें मूल प्रकृतिको जो द्रव्य मिलता है वह सब उसकी उत्तर प्रकृतिका ही होता है ॥१९६।। ____ आगे घातिकर्मों में सर्वघाती और देशघाती द्रव्यका बँटवारा कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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