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________________ १२४ गो कर्मकाण्डे निम्माणनाममुं १ वर्णचतुष्कर्मु ४ में दिन्तु ४७ नुः ध्रुव प्रकृतिगळ्गे साद्यनादि ध्रुवाध्रुवबंधचतुष्टयमुमक्कुं। शेषाणां शेषवेदनीयद्वयमुं २ मोहनीयसप्तकमु ७। आयुश्चतुष्टयमुं ४ नामदोळ गतिचतुष्टयमुं ४ जातिपंचक, ५ औदारिकद्वयम् २ वैक्रियिकद्वयमुं २ आहारकद्वयमुं २ संस्थानषट्क, ६ संहनन· षट्कमुं। आनुपूळचतुष्टयमुं ४ । परघातमुं १ आतपमुं १ उद्योतमुं १ उच्छ्वासमुं १ विहायोगति५ द्वयमुं २ सद्वर्यमुं २ बादरद्वयमुं २ पर्याप्तद्वयमुं २ प्रत्येकसाधारणशरीरद्वयमुं २ स्थिरद्वयमुं २ शुभद्वयमुं २ सुभगद्वयमुं २ सुस्वरद्वयमुं २ आदेयद्वयमुं २ यशस्कोत्तिद्वयमु२ तीर्थमुम दिन्तु ५८ गोत्रद्वितयमु २ मिन्तु ७३ अध्र वप्रकृतिगळ्गे सांद्यध्रुवबंधद्वयमक्कुमो प्रकृतिगळोळु अप्रतिपक्षगळेदु सप्रतिपक्षंगळेदु द्विप्रकारमप्पुवेंदु पेळ्दपर : सेसे तित्थाहारं परघादचउक्क सव्व आऊणि । अप्पडिवक्खा सेसा सप्पडिवक्खा हु बासट्ठी ॥१२५॥ शेषे तीर्थमाहारद्वयं परघातचतुष्क सर्वायूंष्यप्रतिपक्षाणि शेषाणि सप्रतिपक्षाणि खलु द्वाषष्टिः॥ ध्रवप्रकृतिगळु ४७ । कळद शेषप्रकृतिगळु ७३ । रवरोळु तीर्थमुमाहारद्वयम परघातचतुष्कमायुष्यचतुष्कमुमिन्तु ११ प्रकृतिगळ अप्रतिपक्षंगळप्पुवुळिद सातद्वयमु२ स्त्रीपुंनपुंसक१५ वेदत्रयमु३ हास्यविकमु २ मरतिद्विकमुं २ गतिचतुष्टयमु ४ जातिपंचक, ५ औदारिकद्विकमुं २ लघूपघाती निर्माणं वर्णचतुष्कं चेति सप्तचत्वारिंशद्ध वाणां चतुर्धा बन्धो भवति । शेषाणां वेदनीयद्वयमोहनीयसप्तकायुश्चतुष्कगतिचतुष्कजातिपञ्चकोदारिकद्वयव क्रियिकद्वयाहारकद्वयसंस्थानषट्कसंहननषटकानुपूर्व्यचतुष्क - परघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतिद्वयत्रसद्वयबादरद्वयपर्याप्तद्वयप्रत्येकद्वयस्थिरद्रय - शुभद्वयसुभगद्वयसुस्वरद्वया - देयद्वययशस्कीर्तिद्वयतीर्थकरगोत्रद्वयानां त्रिसप्तत्यध्र वाणां साद्यध्र वबन्धी भवतः ॥१२४॥ एतासु अप्रतिपक्षाः २० सप्रतिपक्षाश्चेति भिनत्ति घ्र वेभ्यः शेषत्रिसप्तत्या तीर्थमाहारद्वयं परघातचतुष्कं आयुश्चतुकं चेत्येकादश अप्रतिपक्षा भवन्ति जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, वर्णचतुष्क इन सैंतालीस ध्रुव प्रकृतियोंका चारों प्रकारका बन्ध होता है। शेष वेदनीय दो, मोहनीयकी सात, चार आयु, चार गति, पाँच जाति, औदारिक वैक्रियिक और आहारक शरीर तथा इनके अंगोपांग इस २५ तरह दो-दो, छह संस्थान, छह संहनन, चार अनुपूर्वी, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, दो विहायोगति, त्रस स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-दुभंग, सुस्वर-दुस्वर, आदेय-अनादेय, यश-कीति-अयशःकीर्ति, तीर्थकर दो गोत्र इन तिहत्तर अध्रुव प्रकृतियोंका सादि और अध्रुव बन्ध होता है ।।१२४॥ __विशेषार्थ-जबतक व्युच्छित्ति नहीं होती तबतक ४७ प्रकृतियाँ प्रतिसमय बँधती हैं । ३० इसीसे इन्हें ध्रुव कहा है। शेष ७३ का बन्ध कभी होता है कभी नहीं होता। अतः इन्हें अध्रुव, कहा है। आगे इनमें अप्रतिपक्ष और सप्रतिपक्ष भेद करते हैंध्रुव प्रकृतियोंसे शेष तिहत्तर प्रकृतियोंमें तीर्थकर, आहारकद्विक, चार आयु, परघात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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