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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२३ तद्गुणस्थानदोळंतरिसिद तत्प्रकृतिबंधमनवरोहणदोळ सूक्ष्मसांपरायनागि कट्टिदो डल्लि साविबंधमर्दारवं । श्रेण्यनारूढे यत्कर्म यस्मिन्गुणस्थाने व्युच्छिद्यते तदनंतरो परितनगुणस्थानं श्रेणिः एंविन्तु तत्सूक्ष्मसांपरायचरमसमयवत्तणिदं केळगे द्वितीयादि समयंगळोळ नादिधबं में बुदक्कुं । तु मत्ते । अभव्यसिद्धे ध्रुवः अभव्यजीवतोळ ध्रुवबंध मक्कु में तेंदोडा दिमध्यावसानरहितमागि ज्ञानावरणादि निष्प्रतिपक्षकम्मंगळगे निरंतरबंध मुंटप्पुदरिवं । भव्यसिद्धे भव्यजीवं गळोळ अध व वबंधमक्कुमेंतेंदोडे ज्ञानावरणाविक मंगळगे क्षपक श्रेण्यारोहणदोळमुपशमश्रेण्यारोहणदोळं सूक्ष्मसांपरायनोळु बंधव्युच्छित्तिगळागि मेलणुपशांतकषायादिगुणस्थानंगळोळ बंधरहितत्वमागुत्तं विरलु तदज्ञानावरणादिबं घक्कध वत्वमक्कुमपुरिदं ॥ अनंतरमुत्तरप्रकृतिगोळु धवप्रकृतिगळगे साद्यादिचतुव्विधबंध मुमनध, वप्रकृतिग साद्यवद्विविधबंधमे+कुम' बुदं पेलवपद : घादितिमिच्छकसाया भयतेजगुरुदुगणिमिणवण्णचऊ । सत्तेत्तालधुवाणं चदुधा सेसाणयं तु दुधा ॥ १२४॥ घातित्रयमिथ्यात्व कषायाः भवतेजोऽगुरुद्वि कनिर्माणवणं चत्वारि । सप्तचत्वारिंशदध्रुवाणां चतुर्धा शेषाणां तु द्विधा ॥ घातित्रय ज्ञानावरण पञ्चकमुं ५ दर्शनावरणनवकमुं ९ अंतरायपंचकमुं ५ । मिथ्यात्वप्रकृतियुं १५ १ | षोडशकषायंगळं १६ । भयजुगुप्साद्वयमु २ तेजसकाम्मणशरीरद्वयमुं २ अगुरुलघूपघातद्वयमुं २ वतरतः सूक्ष्मसांपराये । यत्कर्म यस्मिन् गुणस्थाने व्युच्छिद्यते तदनन्तरोपेरितनगुणस्थानं श्रेणिः तत्रानारूढे अनादिबन्धः स्यात् यथा सूक्ष्मसांपरायचरमसमयादधस्तत्पञ्चकस्य । तु पुनः अभव्यसिद्धे ध्रुवबन्धो भवति निष्प्रतिपक्षाणां बन्वस्य तत्रानाद्यनन्तत्वात् । भव्यसिद्धे अध्रुवबन्धो भवति । सूक्ष्मसांपराये बन्धस्य व्युच्छित्त्या तत्पञ्चकादीनामिव ॥ १२३॥ अथोत्तरप्रकृतिष्वाह १० Jain Education International ज्ञानदर्शनावरणाांतरायावेकान्नविंशतिः मिथ्यात्वं षोडशकषायाः, भयजुगुप्से तेजसकार्मणे अगुरुजानेपर उनके बन्धका अभाव हो जाता है और उपशान्त कषायसे उतरकर जो सूक्ष्मसाम्पराय में आता है उसके पुनः उनका बन्ध होता है वह बन्ध सादि है । जिस कर्म की जिस गुणस्थान में व्युच्छित्ति होती है उसके अनन्तरवर्ती ऊपरका गुणस्थान श्रेणि कहाता है उसपर जो नहीं चढ़ा है उसका बन्ध अनादि है । जैसे सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयसे नीचे ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियोंका बन्ध अनादि है । अभव्य जीवके ध्रुवबन्ध होता है क्योंकि जो प्रकृतियाँ प्रतिपक्षी प्रकृतियोंसे रहित हैं उनका बन्ध अभव्यके अनादि अनन्त होता है । भव्यजीवके अध्रुव बन्ध होता है जैसे सूक्ष्म साम्पराय में ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है ॥ १२३ ॥ २५ उत्तर प्रकृतियों में कहते हैं ३० ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकी उन्नीस, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, १. | For Private & Personal Use Only २० www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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