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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२५ वैक्रियिकद्वयमुं २ । संस्थानषट्क, ६ संहननषट्कमुं६ । विहायोगतिद्वयमुं २ त्रसद्वयमु २ बादरद्वयमु२ पर्याप्तद्वयमु२ प्रत्येकशरीरद्वयमु२ स्थिरद्वयमु२ शुभद्वयमुर सुभगद्वयम् २ सुस्वरद्वयमु२। आदेयद्वयमु२ यशस्कोत्तिद्वयमु२ गोत्रद्वयमु२ आनुपूर्व्यचतुष्टयमुं ४ मिन्तु द्विषष्टि प्रकृतिगळु ६२ सप्रतिपक्षगळप्पुवनंतरमी शेषा, वप्रकृतिगळु ७३ क्कं साद्य, वबंधक्कुपपत्तियं तोरिदपरु : अवरो भिण्णमुहुत्तो तित्थाहाराण सव्वआऊणं । समओ छावट्ठीणं बंधो तम्हा दुधा सेसा ॥१२६॥ अवरो भिन्नमुहूर्तस्तीर्थाहाराणां सर्वायुषां समयः षट्पष्टीनां बंधस्तस्मादद्विधा शेषा ॥ तीर्थंकरनामकर्मक्कमाहारद्वयक्कं सर्वायुष्यंगळ्गमिन्तु ७ प्रकृतिगळ्गे जघयदिदं निरंतरबंधाद्धे अंतर्मुहूर्तकालमक्कुं २७ । शेषषट्षष्टिप्रकृतिगळ्गे ६६ जघन्यदिदं बंधकालमेक- १० समयमेयक्कुमदु कारणमागि ई शेष ७३ प्रकतिगळ्ग ध्र वंगळ्गे साद्यध्र वबंधद्वितयं सिद्धमादुदु । यितु प्रकृतिबंधं समाप्तमादुदु । शेषाः द्वाषष्टिः सप्रतिपक्षा भवन्ति । प्रकृतिप्रदेशबन्धनिबन्धनयोगस्थानानां चतसृभिः स्थित्यनुभागबन्धनिबन्धनतदध्यवसायानां षड्भिश्च वृद्धिहानिभिः परिवर्तनेन सातद्वयस्येव वेदत्रयादीनामपि परस्परं तथात्वसंभवात ॥१२५॥ अध्र वाणां साद्यध्र वबन्धयोरुपपत्तिमाह १५ तीर्थस्य आहारकद्वयस्य सर्वायुषां च. जघन्येन निरन्तरबन्धकालोऽन्तर्मुहूर्तः २१ । शेषषट्पष्टेश्च एकआदि चार ये ग्यारह प्रकृतियाँ अप्रतिपक्षा हैं इनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियाँ नहीं हैं। शेष बासठ सप्रतिपक्षा हैं ॥१२५॥ विशेषार्थ-जो प्रकृतियाँ अप्रतिपक्षा होती हैं उन प्रकृतियोंका जिस समय बन्ध होता है उस समय उनका अपना ही बन्ध होता है और जब बन्ध नहीं होता तब नहीं होता। २० जैसे तीर्थकर प्रकृति अप्रतिपक्षा है जिस समय इसका बन्ध होता है उस समय इसका बन्ध होता है, नहीं होता तो नहीं होता। इसके बदलेमें बँधनेवाला प्रकृति नहीं है। किन्तु जो प्रकृतियाँ सप्रतिपक्षा हैं उनमें से एक समयमें किसी एकका बन्ध होता है, जैसे साता-असातावेदनीय सप्रतिपक्षा हैं उनमें से एक समयमें एकका बन्ध अवश्य होता है। मोहनीयमें रति-अरति प्रतिपक्षी हैं। हास्य-शोक प्रतिपक्षी हैं, तीनों वेद परस्पर प्रतिपक्षी हैं। २५ इनमें से एक-एकका ही बन्ध होता है। नामकर्ममें चार गति परस्पर प्रतिपक्षी हैं। पाँच जाति परस्पर प्रतिपक्षी हैं इनमें से एक-एकका ही बन्ध होता है। दो गोत्रों में से एकका ही बन्ध एक समयमें होता है। प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण योगस्थान है उनमें चतुःस्थानपतित वृद्धिहानिके द्वारा तथा स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धके कारण अध्यवसाय स्थान हैं उनमें ३० षट्स्थानपतित वृद्धिहानिके द्वारा परिवर्तन होता रहता है इसलिए साता-असाताकी तरह तीन वेद आदिमें भी परस्परमें प्रतिपक्षीपना होता है अतः उनमें-से भी कभी किसीका और कभी किसीका बन्ध' होता है ॥१२५॥ अध्रुव प्रकृतियोंमें सादि और अध्रुवबन्ध ही क्यों होता है, यह बतलाते हैंतीर्थकर, अहारक 'युगल और चारों आयुका निरन्तर बन्धकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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