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________________ १२६ गो० कर्मकाण्डे सातादि सप्रतिपक्षंगळु तंतम्मोळु परस्परं प्रतिपक्षंगळे दरिदेके दोडे प्रकृतिप्रदेशबंधनिबंधनयोग्यस्थानंगळ्गे चतुर्वृद्धिहानिळिंदमुं स्थित्यनुभागबंधनिबंधनस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळगमनुभागबंधाध्यवसायस्थानंगळ्गं षड्ढानिषवृद्धिळिवं परावृत्तिवर्तनमंटप्पुरदं । अनंतरं स्थितिबंधमं पेळलुपक्रमिसिमोदळोळ मूलप्रकृतिगत्कृष्टस्थितिबंधमं पेन्दपर। तीसं कोडाकोडी तिघादितदिएसु वीस णामदुगे । सत्तरि मोहे सुद्धं उवही आउस्स तेतीसं ॥१२७॥ त्रिंशत्कोटीकोट्यस्त्रिधातित्रितयेषु विंशति मद्विके । सप्ततिम्र्मोहे शुद्धा उदधय आयुषस्त्रयस्त्रिशत॥ त्रिघातितृतीयेषु ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयमन्तरायं वेदनीयमुमें बी नाल्कुं मूलप्रकृति१० गळुत्कृष्टस्थितिबंधं प्रत्येकं त्रिंशत्कोटीकोटिसागरोपमप्रमितमक्कुं। विशतिमिद्विके नामगोत्र. द्वयक्कुत्कृष्टस्थितिबंधं प्रत्येक विशतिकोटीकोटिसागरोपममात्रमक्कुं। मोहनीयदोळु सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमप्रमितमुत्कृष्टस्थितिबंधमक्कुं। आयुष्यक्कुत्कृष्टस्थितिबंध शुद्धस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणमक्कुमिल्लि शुद्धविशेषणं कोटोकोटिव्यवच्छेदकमक्कुमप्पुरिंद मूवत्तमूरे सागरोपमंगळे बुवत्थं । ज्ञा। सा ३० । को २। द । सा ३० । को २ । वे। सा ३० । को २। मो। सा ७० को १५ २। आयु । सा ३३ । नाम । सा २० । को २। गोत्र सा २० । को २। अन्तस । सा ३० को २। अनन्तरमुत्तरप्रकृतिगळ्गे उत्कृष्टस्थितिबंधम गाथाषट्कदिवं पेन्दपरु : दुक्खतिघादीणोघं सादित्थीमणुदुगे तदद्धं तु । सत्तरि दंसणमोहे चरित्तमोहे य चत्तालं ॥१२८॥ दुःखत्रिघातीनामोघः सातः स्नोमानवद्विके तदद्धं तु। सप्ततिदर्शनमोहे चरित्रमोहे च २० चत्वारिंशत् ॥ समयः, ततः कारणात् तासामध्र वाणां साद्यध्रुवबन्धी सिद्धो ॥१२६॥ इति प्रकृतिबन्धः समाप्तः। अथ स्थितिबन्धमुपक्रमन्नादौ मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिमाह उत्कृष्टः स्थितिबन्धः कोटीकोटिसागरोपमाणि ज्ञानदर्शनावरणांतरायवेदनीयेषु त्रिंशत् । नामगोत्रयोः विशतिः । मोहनीये सप्ततिः । आयुषि शुद्धानि कोटीकोटिविशेषणरहितानि सागरोपमाण्येव त्रयस्त्रिंशत् । २५ अत्र शुद्धविशेषणं कोटीकोटिव्यवच्छेदार्थम् ।।१२७॥ अथोत्तरप्रकृतीनां गाथाषट्केनाह है। और शेष छियासठका निरन्तर बन्धकाल जघन्यसे एक समय है इस कारणसे उन तिहत्तर अध्रुव प्रकृतियोंका सादि और अध्रुव बन्ध ही होता है यह सिद्ध हुआ ॥१२६।। इस प्रकार प्रकृतिबन्ध समाप्त हुआ। आगे स्थितिबन्धको प्रारम्भ करते हुए प्रथम मूल प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं३० उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और वेदनीयका तीस कोडाकोडी सागर प्रमाण है। मोहनीयका सत्तर कोडाकोडि सागर प्रमाण है। आयुका शुद्ध अर्थात् कोडाकोडी विशेषणसे रहित तैतीस सागर प्रमाण है। यहां शुद्ध विशेषण कोडाकोड़ीके व्यवच्छेदके लिए दिया है ।।१२७।। आगे छह गाथाओंसे उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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