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अनंतरमुत्कृष्टानुत्कृष्ट जघन्य
मूलप्रकृतिगळोळ पेव्वपर :
छपि अणुक्कस्सो पदेसंबंधी दुचदुविप्पो दु । सेसतिये दुवियप्पो मोहाऊणं च दुवियप्पो ॥ २०७ ॥
षण्णामप्यनुकृष्टः प्रवेशबंधस्तु चतुव्विकल्पस्तु । शेषत्रये द्विविकल्पो मोहायुवोश्च - तुविकल्पः ॥
षण्णां ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीयनामगोत्रान्तरायंगळे बारुं मूलप्रकृतिगळ अनुत्कृष्टः प्रदेशबंधः अनुत्कृष्टप्रदेशबंधं चतुव्विकल्पस्तु साद्यनादिध्रुवाध्रुवभेद दिवं चतुव्विकल्पमकुं । तु मलमा षड्मूलप्रकृतिगळ शेषत्रये अनुकुष्टवज्जतोत्कृष्टाजघन्यजघन्यशेषत्रयवोळु द्विविकल्पः १० साधव भवद्विविकल्पमेयक्कं । तु मत्तं मोहायुषोः मोहनीयायुष्यंगळेरडर चतुव्विकल्पः उत्कृष्टानुत्कृष्टाजघन्यजघन्यमे व चतुव्विकल्पनुं साद्यध्रुवमे बेरडे विकल्पंगळनुक्रञ्जवप्पुवु :
गो० कर्मकाण्डे
जघन्य प्रवेशबंषंगळगे साद्यादिभेव संभवासंभव विशेषमं
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अथ उत्कृष्टादीनां साद्यादिविशेषं मूलप्रकृतिष्वाह
षण्णां ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायाणामनुत्कृष्टः प्रदेशबन्धः साद्यनादिघ्र बाधु वभेदाच्चतुविधो भवति । तु-पुनः शेषोत्कृष्टा जघन्यजघन्येषु साद्यध्र ुवभेदाद् द्विविध एव । तु-पुनः मोहायुषोः उत्कृष्टादि
१५ प्रतिभाग आठसे भाग देनेपर एक आया। - द्रव्यवालेको देना । शेष एक भाग एक समान भाग में इनको मिलानेपर क्रमसे नौ सौ तीन ९०३ और आठ सौ सत्तानवे ८९७ द्रव्यका प्रमाण आया । इस प्रकार चार हजार छियानबेका बँटवारा हुआ। इसी प्रकार उक्त प्रकृतियोंका भी जानना । ज्ञानावरण,
२० दर्शनावरण और मोहनीयकी प्रकृतियों में क्रमसे घटता द्रव्य होता है । अन्तराय और नामकर्मको प्रकृतियों में क्रमसे अधिक अधिक द्रव्य होता है । वेदनीय आयु और उच्च गोत्रकी उत्तर प्रकृति एक समय में एक ही बँधती हैं । अतः इनका द्रव्य मूल प्रकृतिवत् होता हैं ||२०६||
उसे अलग रख बहुभाग सात उससे भी हीन उससे भी हीन द्रव्यवालेको देना । अपने-अपने तेरह सौ चवालीस १३४४, नौ सौ बावन ९५२,
इस प्रकार प्रदेश बन्धके प्रकरण में द्रव्यके विभागका क्रम कहा । आगे मूल प्रकृतियों में २५ उत्कृष्ट आदि प्रदेशबन्ध के सादि आदि भेद कहते हैं
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र, अन्तराय इन छह कर्मोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुबके भेदसे चार प्रकार है । इन्हीं छड़ोंका उत्कृष्ट
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