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________________ प्रस्तावना योग्य पुद्गलोंके, जो सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही और अनन्तानन्त प्रदेशी होते हैं-विभागरहित उपश्लेषको बन्ध कहते है। जैसे एक विशेष पात्र में डाले गये विभिन्न रसवाले बीज पुष्प फलोंका परिणमन मदिराके रूपमें हो जाता है उसी प्रकार आत्मामें स्थित पुद्गलोंका योग और कषायके वशसे कर्मरूपसे परिणमन होता है इसोको बन्ध कहते हैं। इस तरह जैसे जीव और पुद्गल दोनों अनादि है । उसी प्रकार दोनोंका सम्बन्ध भी अनादि है। जीवके अशुद्ध रागादि भावोंका कर्म कारण है और जीवके अशुद्ध रागादि भाव उस कर्मके कारण हैं। आशय यह है कि पूर्व में बद्ध कर्मके उदयसे जीवके रागादि भाव होते हैं, और रागादि भावोंको निमित्त करके जीवके नवीन कर्मका बन्ध होता है। वे नवीन बन्धे कर्म जब उदयमें आते हैं तो उनका निमित्त पाकर जीवके पुनः रागादि भाव होते हैं और उन भावोंका निमित्त पाकर पुनः नवीन कर्मबन्ध होता है। इस प्रकार जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है। पंचास्तिकायमें जीव और कर्मके इस अनादि सम्बन्धको जीवपुद्गल कर्मचक्रके नामसे अभिहित करते हुए लिखा है 'जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥१२८॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं द् विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥१२९॥ जीयदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्रवालम्मि । इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणो सणिघणो वा ॥' अर्थ-जो जीव संसारमें स्थित है अर्थात् जन्म और मरणके चक्रमें पड़ा है उसके राग और द्वेषरूप परिणाम होते हैं । परिणामोंसे नये कर्म बन्धते हैं। कर्मोसे गतियों में जन्म लेना पड़ता है, जन्म लेनेसे शरीर होता है । शरीरमें इन्द्रियां होती हैं। इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण होता है। विषयोंके ग्रहणसे राग व द्वेषरूप परिणाम होते हैं। इस प्रकार संसाररूपी चक्रमें पड़े हुए जीवके भावोंसे कर्म और कर्मसे भाव होते रहते हैं। यह प्रवाह अभव्य जीवोंको अपेक्षा अनादि अनन्त है और भव्य जीवकी अपेक्षा सादिमात्र है। जीव और कर्म में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध-- खानिया तत्त्वच में प्रथम शंका यह उपस्थित की गई थी-'द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या नहीं ? इसके समाधान में कहा गया है कि द्रव्यकर्मों के उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतर्गति भ्रमणमें व्यवहारसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है। और अपने इस कथनके सम्बन्ध समयसारकी गाथा ८०-८२ उद्धृत की गयी हैं। अमृतचन्द्रजीने अपनी टीकामें कहा है-'यतः जीवके परिणामोंको निमित्त करके पदगल कर्मरूपसे परिणमन करते हैं और पुद्गल कर्मोको निमित्त करके जीव भी परिणमन करता है। इस प्रकार जीवके परिणाम और पुद्गलके परिणाम में पारस्परिक हेतुत्वकी स्थापना करनेपर भी परस्परमें व्याप्य-व्यापक भावका अभाव होनेसे जीव और पुद्गलके परिणामों में कर्ता कर्मभाव सिद्ध न होनेपर भी निमित्त-नैमित्तिक भावका निषेध न होनेसे एक दूसरेके निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोंका परिणाम होता है। अध्यात्ममें कर्ता-कर्म भाव दो द्रव्योंमें नहीं माना जाता है। क्योंकि उनमें व्याप्य-व्यापक भावका अभाव होता है। जहांतक हम जानते हैं जीव और कर्ममें कर्ताकर्म भाव जो उपादान मूलक होता है कोई नहीं मानता। फिर भी निमित्तको हेतकर्ता मानने वालोंका ऐसा भाव है कि जीव और कर्म दोनों परस्परमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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