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________________ ६ गो० कर्मकाण्ड प्रेरक निमित्त हैं । अर्थात् जीवके परिणामोंसे प्रेरित होकर पुद्गल कर्मरूप परिणमन करता है । और पुद्गलकर्म से प्रेरित होकर जीव रागादिरूप परिणमन करता है । और इस प्रकारके कथन कर्मको बलवत्ता दिखाने के लिए किये भी गये हैं । प्रवचनसार गाथा ११७ में कहा है- 'नाम संज्ञावाला कर्म अपने स्वभावसे आत्मा के स्वभावको अभिभूत करके उसे मनुष्य तियंच नारकी अथवा देव करता है ।' कर्मसिद्धान्त से सम्बद्ध जितना भी कार्मिक साहित्य मिलता है प्रायः उस सबमें कर्मका वर्णन निमित्तकर्ताके रूपमें मिलता है । जैसे, जो ज्ञानको आवरण करता है वह ज्ञानावरणीय कर्म है, जो दर्शनको आवरण करता है वह दर्शनावरणीय कर्म है । इसी तरह षट्खण्डागमकी जीवस्थान चूलिकामें धवला टीका के अन्तर्गत व्युत्पत्ति करते हुए मोहनीयको व्युत्पत्ति की गयी है जो मोहित किया जाता वह मोहनीय है । इसपरसे जो शंका और समाधान किया गया है वह द्रष्टव्य है मोहणीयं ॥ ८॥ 'मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्वं पसजदि त्ति णासंकणिज्जं जीवादो अभिणम्हि पोलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तोदो' (पृ. ११) । शंका- ऐसो व्युत्पत्ति करनेपर तो जीवको मोहनीयत्व प्राप्त होता है । समाधान — ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि जीवसे अभिन्न और कर्म नामवाले पुद्गलद्रव्य में उपचारसे कर्तृत्वका आरोप करके उस प्रकारकी व्युत्पत्ति की गयी है । वीरसेन स्वामीका उक्त कथन सर्वत्र लगा लेना चाहिये । कर्म संज्ञावाले पुद्गलद्रव्य में उपचारसे कर्तृत्वका आरोप करके कर्मसिद्धान्त में निमित्तकर्ता के रूपमें कथन किया गया है ऐसा मानने में कोई विसंगति नहीं है । कर्मसिद्धान्तका समस्त वर्णन द्रव्यकर्म प्रधान है । द्रव्यकर्मको लेकर ही उसमें वर्णन किया गया है । षट्खण्डागमके वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत प्रकृति अनुयोगद्वार में (पु. १३ पृ. २०५ ) प्रकृति में निक्षेपोंका वर्णन करते हुए नोआगमद्रव्य प्रकृति के दो भेद किये हैं- कर्मप्रकृति और नोकर्मप्रकृति । और कर्मप्रकृति के ज्ञानावरणादि भेद किये हैं । अतः कर्मसिद्धान्तमें पुद्गलद्रव्य कर्मको लेकर ही वर्णन मिलता है । किन्तु कुन्दकुन्द स्वामीने अपने ग्रन्थों में जीव और वर्मके विवेचनमें व्यवहार के साथ निश्चय या परमार्थ स्थितिको भी स्पष्ट किया है । यहाँ हम पञ्चास्तिकाय गा. ५७-६० से उसकी टोकाका विवरण उपस्थित करते हैं गाथा ५७ की टीका में कहा है- 'व्यवहारनयसे जीव द्रव्यकर्मका अनुभवन करता है । और वह अनुभूयमान द्रव्यकर्म जीवके भावोंका निमित्तमात्र कहा जाता है । उसके निमित्तमात्र होने पर कर्ता जीवके द्वारा कर्मभूत भाव किया जाता है। इस तरह जो जिस प्रकारसे जीवके द्वारा भाव किया जाता है वह जीव उस भावका उस प्रकारसे कर्ता होता है ।' . उक्त कथनमें उदयागत द्रव्य कर्मोंको जीवके भावोंका निमित्तमात्र कहा है । तथा जीवको ही अपने भावका कर्ता कहा है । जीव द्रव्यका परिणमन जीत्रमें होता है और पुद्गल द्रव्य का परिणमन पुद्गलमें होता है । जिस समय जीव स्वतन्त्र रूपसे अपने भाव करता उसी समय में कर्मका उदय भी होता है । इस तरह दोनोंमें निमित्त नैमित्तिकपना घटित होता है । कर्मकी उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाएं होती हैं । और उसीको निमित्त करके जीवके औदयिक औपशमिक आदि भाव होते हैं । इसलिये गाथा ५२ में भावको कर्मकृत कहा है । क्योंकि कर्मके बिना उदयादि नहीं होते । इसपर से गाथा ५९ में यह पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है, यदि जीवका बौदयिकादिरूप भाव कर्मकृत है तो जीव उसका कर्ता नहीं हुआ और जीवको कर्ता माना गया है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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