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प्रस्तावना
कि जीव द्रव्यकर्मका कर्ता है । किन्तु ऐसा कैसे हो सकता है; क्योंकि निश्चयनयसे आत्मा अपने भावको छोड़ अन्य कुछ भी नहीं करता ?'
इसके समाधान में कहा है- व्यवहारसे निमित्तमात्र होने के कारण जीवभावका कर्म कर्ता है। और जीवभाव कर्मका कर्ता है। किन्तु निश्चय से न तो जीवभावोंका कर्ता कर्म है और न कर्मका कर्ता जीव-भाव है। किन्तु वे कर्ता के बिना भी नहीं होते। अतः निश्चयसे जीवभावोंका कर्ता जीव है और कर्मपरिणामोंका कर्ता कर्म है ।।
यहाँ यह शंका हो सकती है कि द्रव्यकर्मके निमित्तमात्र होनेपर भी जीव अपने भावके करने में स्वतन्त्र कैसे कहा जा सकता है इस प्रसंगमें हम अकलंक देवके तत्वार्थराजवार्तिकसे एक उद्धरण देना उचित समझते हैं । पांचवें अध्याय के प्रथम सूत्रके व्याख्यानमें कहा है कि 'धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' यहाँ पर बहुवचन स्वतन्त्रताका बोध कराने के लिए कहा है। वह स्वातन्त्र्य क्या है ? धर्मादिद्रव्य जो गति आदि उपकार करने के लिए प्रवृत्त होते हैं ऐसा वे स्वयं हो परिणमन करते हैं। उनकी यह प्रवृत्ति पराधीन नहीं है । यही स्वातन्त्र्य यहाँ विवक्षित है । इसपर शंका की गयी-परिणामियों में परिणाम बाह्य द्रव्यादिनिमित्तवश पाया जाता है । स्वतन्त्र मानने पर उसका विरोध होता है। समाधान में कहा गया है-नहीं, बाह्य तो निमित्तमात्र है। गति आदि रूपसे परिणमन करनेवाले जीव पुद्गल गति आदि उपग्रह में धर्मादि के प्रेरक नहीं हैं।
जीव और कर्ममें भी जो निमित्त-नैमित्ति सम्बन्ध है वह प्रेरणामूलक नहीं है । अर्थात् न तो जीवकर्म पुद्गलोंको कर्म रूप परिणमन करने में प्रेरक होता है और न उदयागत कर्म जीवको अपने भाव करने में प्रेरक होते हैं। यदि कर्मको प्रेरक निमित्त माना जायेगा तो जोवकी मुक्ति में बाधा उपस्थित होगो । यद्यपि ऐसा भी कथन मिलता है । सोमदेव उपासकाध्ययन में कहा है
'प्रेर्यते कर्म जीवेन जीवः प्रेर्येत कर्मणा ।
एतयोः प्रेरको नान्यो नौनाविकसमानयोः ।।१०६ ॥ किन्तु उक्त कथनमें जीव और कर्मकी स्थितिमें किसी अन्य प्रेरक ईश्वर आदिका निषेध किया है। जीवके अशुद्ध रागादिभावोंका कारण कर्म है और कर्मके कारण रागादिभाव है। किन्तु न तो पुद्गलकर्म जीवको रागादिभाव करने के लिए प्रेरित करता है और न रागादिभाव पुद्गलकों को कर्म रूप होने के लिए प्रेरित करते हैं। प्रवचनसारमें कहा है-'कर्मरूप होने के योग्य पुद्गलस्कन्ध अर्थात् जिनमें कर्मरूप परिणमन करनेकी शक्ति है वे पुद्गलस्कन्ध जीवके साथ एक क्षेत्रमें रहते हैं और जीवके परिणाममात्र बाह्य साधनका आश्रय लेकर स्वयमेव कर्मरूपसे परिणमन करते हैं, जीव उनको परिणमाता नहीं है' अतः यह निश्चित होता है कि पुद्गलस्कन्धोंका कर्मरूप करने वाला आत्मा नहीं है ।।१६९॥ __ आगे पुद्गलबन्ध, जीवबन्ध और उभयबन्धका स्वरूप बतलाते हुए कहा है
कर्मों का स्निग्धता और रूक्षता रूप स्पर्श विशेषोंके द्वारा जो परस्परमें एकत्व रूप परिणमन होता है वह केवल पुद्गलबन्ध है और जीवका औपाधिक मोह राग द्वेष पर्यायों के साथ एकत्वरूप परिणाम होता है वह केवल जीवबन्ध है। तथा जीव और कर्म पुद्गलोंके परस्सर में एक दूसरेके परिणाममें निमित्त होने से जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है वह उभयबन्ध अर्थात् पुद्गल जीवात्मकबन्ध है ॥१७७॥
___ यह आत्मा लोकाकाशके समान असंख्यातप्रदेशी होनेसे सप्रदेशी है। उसके प्रदेशोंमें कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणाका अवलम्बन पाकर जैसा परिस्पन्द होता है उसी प्रकारसे कर्मपुद्गल स्वयं परिस्पन्द वाले होते हुए उसमें प्रवेश करते है और ठहर जाते हैं। और यदि जीवके मोह राग द्वेष रूप भाव होते हैं तो बन्धको प्राप्त होते हैं। इस तरह द्रव्यबन्धका कारण भावबन्ध है ॥१७८॥ रागरूप परिणत
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