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________________ गो० कर्मकाण्ड आत्मा ही नवीन द्रव्यकर्मसे बन्धता है और रागरहित आत्मा कर्मोंसे छूटता है । अतः निश्चयसे रागपरिणाम ही बन्ध है वही द्रव्यबन्धका साधकतम है ॥ १७९ ॥ इस प्रकार से आगम में बन्धकी व्याख्या है | ८ स्वयंका अर्थ अपने रूप नहीं प्रवचनसार, समयसार आदिमें इस प्रकरणमें अनेक स्थानोंमें 'स्वयं' शब्द आता है । 'स्वयं' शब्दका अर्थ स्पष्ट है- 'अपने-आप' अर्थात् किसीसे प्रेरित होकर नहीं । जैसे हरिवंशपुराणके श्लोक में कहा है"स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्राम्यति संसारे स्वयं तस्माद् विमुच्यते ॥' 'आत्मा स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है । स्वयं संसार में भ्रमण करता है और स्वयं उससे छूटता है। इसी प्रकार प्रवचनसारगाथा १६९ की टीकामें भी जो 'स्वयं' शब्द आया है उसका अर्थ भी वही है - अपने आप ! समयसार में भी गाथा ११६, ११८, १२१, १२२, १२३, १२४ में 'स्वयं' पद आया है। उनका अर्थ प्रथम हिन्दी टीकाकार पं. जयचन्द जीने सर्वत्र 'अपनेआप' किया है । यहीं हम टीकानुसार अर्थ देते हैं---- यदि पुद्गलद्रव्य जीव में आप स्वयं नहीं बँधा है, और कर्मभावसे आप नहीं परिणमता है तो वह पुद्गलद्रव्य अपरिणामी ठहरता है । अथवा कर्मवर्गणा आप कर्मभावसे नहीं परिणमती है तो संसारका अभाव ठहरता है । अथवा सांख्यमतका प्रसंग आता है । यदि जीव पुद्गलद्रव्यको कर्मभावसे परिणमाता है तो आप नहीं परिणमते हुए पुद्गलद्रव्यको चेतनजीव कैसे परिणमाता है । अथवा यदि पुद्गलद्रव्य आप ही कर्मभाव से परिणमता है तो जीव पुद्गलद्रव्यको कर्मभावसे परिणमाता है यह कथन मिथ्या ठहरता है । तथा जीव कर्मसे स्वयं नहीं बँधा हुआ क्रोधादिभावसे आप नहीं परिणमता तो वह जोव अपरिणामी हुआ। ऐसा होनेपर संसारका अभाव आता है । यदि कोई ऐसा तर्क करे जो क्रोधादि रूप पुद्गल कर्म है वह जीवको क्रोधादि रूप परिणमाता है अतः संसारका अभाव नहीं होगा । तो यहाँ दो पक्ष हैं - जो पुद्गलकर्म क्रोधादि हैं वे अपनेआप अपरिणमतेको परिणमाते हैं कि परिणमतेको परिणमाते हैं । प्रथम तो जो आप नहीं परिणमता हो उसको परिणमानेको पर समर्थ नहीं होता; क्योंकि आपमें जो शक्ति नहीं उसे पर उत्पन्न नहीं कर सकता । यदि स्वयं परिणमता है तो उसे परिणमानेवाले परकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि वस्तुकी शक्ति परकी अपेक्षा नहीं करतो 'अतः यह ठहरा कि जीव परिणाम स्वभाववाला स्वयं है ।' ऊपर सर्वत्र टीकाकार पं. जयचन्दजीने 'स्वयं' का अर्थ अपनेआप ही किया है, अतः अपनेखा अर्थ करना ठीक नहीं । - आचार्य वादिराजजी ने अपने एकीभाव स्तोत्रमें लिखा है'एकीभावं गत इव मया यः स्वयं कर्मबन्धो' जो कर्मबन्ध स्वयं ( अपने आप ) मेरे साथ एकीभावकी तरह प्राप्त हुआ है । अतः यथार्थ में न तो जीव कर्मको प्रेरित करता है और न कर्म जीवको प्रेरित करता है । दोनों दोस्वतन्त्र विभिन्न द्रव्य हैं। दोनों ही परिणामी हैं। दोनोंमें निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धमात्र है । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में कहा है 'इस संसार में जीवकृत रागादिरूप परिणामोंका निमित्तमात्र पाकर पुद्गल स्वयं कर्मरूपसे परिणत हो जाते हैं । और अपने चिदात्मक रागादिभाव रूपसे स्वयं ही परिणमन करनेवाले उस चेतन आत्मा के भी पौद्गलिक कर्म निमित्तमात्र होते हैं। इस प्रकार यह आत्मा कर्मकृत भावोंसे असमाहित होते हुए भी अज्ञानी जनों को सयुक्त के समान प्रतिभासित होता है और इस प्रकारका प्रतिभास ही संसारका बीज है । इस विपरीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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