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________________ ६१४ गो० कर्मकाण्डे १३१। बध्यमान १३० अबध्यमान उच्चैर्गोत्रमनुद्वेल्लनमं माडिव तेजस्कायिकवायुकायिकजीवंगळ नवमबद्घायुष्यसत्वस्थानदोजु भुज्यमानतेजस्काय वायुकाय विशिष्टतिर्यगायुष्यम बध्यमानतिर्यगायुष्यमुमल्लवितर. नारकमनुष्यदेवायुस्त्रितयमुमाहारकचतुष्टयम तीर्थमु सम्यक्त्वप्रकृतियु मिश्रप्रकृतियुं देवद्विकमु नारकषट्कमुमुच्चैगर्गोत्रमुमेंब हत्तो भत्तु प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरिप्पत्तों भत्तु प्रकृतिसत्वस्थानदो भुज्यमानम बध्यमान, तिर्यगायुष्यमप्प तेजोवायुकायिकजीवंगळ भंगमा वैयक्कुमदुवं पुनरुक्तभंगमादोडं ग्राह्यमादुदु । अल्लि अबद्धायुष्यनोळाऽऽबद्धायुष्यनोळ पेळ्व सत्वरहित प्रकृतिगळु हत्तों भत्तु मी जीवनोळं सत्वरहितंगळागि नूरिप्पत्तो भत्तु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमा तेजोवायकायिकजीवंगळ स्वस्थानभंगमो देयक्कुमदु पुनरुक्तभंगत्वदिदमग्राह्यमक्कु । संदृष्टि :-- बध्यमान । १२९ अबध्यमा १२९ | पुनरुक्त तदबद्धायुःस्थाने त्रिंशच्छतके भंगः, नारकषट्कोद्वेल्लितैकेंद्रियविकलत्रयजीवे एकः । तु-पुनस्तस्मिन्नेव १. जोवे मनुष्येषत्पन्ने प्रथमकाले द्वितीयः । एवं द्वो भंगौ खलु स्फुटं मनुष्यायुषो भेदात् । संदृष्टिः ३० उच्च र्गोत्रोद्वेल्लिततेजोवातकायिकयोनवमं बद्धायुःस्थानं तत्कायविशिष्टभुज्यमानबध्यमानतिर्यगायुा. मितरायुस्त्रयाहारकचतुष्टयतीर्थसम्यक्त्वमिश्रदेवद्विकनारकषट्कोच्चैर्गोत्राभावात् एकान्नत्रिंशच्छतकं । तत्र भुज्यमानबध्यमानतिर्यगायुष्कतेजोवातकायिकभंग एकः । सोऽयं पुनरुक्तोऽपि ग्राह्यः । तदबद्धायुःस्थानमेकान्न त्रिशच्छतकं तत्र तेजोवातयोः स्वस्थानभंग एकः स न ग्राह्यः पुनरुक्तत्वात् । संदृष्टिः१५ आदि पन्द्रहके बिना एक सौ तीसका सत्त्व होता है। अतः यह एक भंग हुआ। वही एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय जीव मरकर मनुष्य हुआ। वहाँ अपर्याप्तकालमें मनुष्यायुके बिना तीन आयु और आहारक चतुष्क आदि पन्द्रह के बिना एक सौ तीसका सत्त्व पाया जाता है। यह दूसरा भंग हुआ। " नौवाँ बद्धायुस्थान उच्चगोत्रकी उद्वेलना होनेपर तेजकाय वायुकायमें होता है। सो २० पूर्वोक्त एक सौ तीसमें-से उच्चगोत्रका अभाव होनेसे एक सौ उनतीस प्रकृतिरूप होता है। यहाँ भंग एक भुज्यमान तियंचायु बध्यमान तियंचायु । यह पुनरुक्त है। किन्तु यहाँ कोई अन्य भंगका प्रकार न होनेसे इसीको ग्रहण किया है । नौवाँ अबद्धायुस्थान भी एक सौ उनतीस प्रकृतिरूप है । अतः बद्धायुस्थानके समान होनेसे पुनरुक्त है । अतः इसका प्रहण नहीं करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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