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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका मनुष्यद्विकमनुद्वेल्लनमं माडिव तेजस्कायिक वातकायिक जीवंगळ वशमबद्धायुष्यसत्व. स्थानवोळुच्चैग्र्गोत्रमनुद्वेल्लनमं माडिव जीवंगळ्णे पेळ्व सत्वरहितप्रकृतिगळु हत्तो भत्तुं मनुष्यद्विकमुं कूडिप्पत्तोंदु प्रकृतिगळु सत्वरहितमागि नूरिपत्तेलु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लियुं भुज्यमानमुं बध्यमान, तिघ्यंगायुष्यमाप तेजोवायुकायिकजीवन स्वस्थानभंगमा देयक्कुमदुर्बु पुनरुक्तभंगमादोडं प्राह्यमक्कुं। अल्लि अबद्धायुष्यनोळा बद्धायुष्यनोळ पेळ्द यिप्पतोदु प्रकृतिगळु ५ सत्वरहितमागि नरिप्पत्तेळु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुम। तेजोवायुकायिकजीवस्वस्थानभंगमों देयक्कुमदुवु पुनवक्त भंगमगाह्ममक्कुं। संदृष्टि :
बध्यमान १२७
अबध्यमान १२७
पुनरुक्त ई पेन सत्वस्थानंगळु पविनेटरोळं पुनरुक्तप्तमभंगंगळं कळेदु शेषभंगंगळं संख्येयं पेळवपरु :
ब
१२९
अ १२९
पुनरु. मनुष्यद्विकोद्वेल्लिततेजोवायुकायिकयोदशमं बद्धायुःस्थानं तद्विकेनोच्चैर्गोत्रोद्वेल्लितस्योक्ततदसत्त्वस्या- १० भावात्सप्तविंशतिशतकं । तत्रापि भुज्यमानबध्यमानतिर्यगायुष्कतेजोवायुकायिकभंग एकः स च पुनरुक्तोऽपि प्रायः । तदबवायुःस्थानं तदेकविंशतेरभावात्सप्तविंशतिशतकं । तत्र तत्तेजोवायुकायिक स्वस्थानभंग एकः, स
पुनरुक्तत्वान्न ग्राह्यः । संदृष्टि:
बध्य
१२७
अब १२७
पुमरु. ॥३७०॥ अयोक्ताष्टादशसत्त्वस्थानभंगान् पुनरुक्तसमभंगेभ्यः शेषान् संख्याति
दसौं बद्धायुस्थान मनुष्यद्विककी उद्वेलना होनेपर तेजकाय वायुकायके जीवके होता १५ है। सो पूर्वोक्त एक सौ उनतीसमें-से मनुष्यगति मनुष्यानुपूर्वीके बिना एक सौ सत्ताईस प्रकृतिरूप जानना । यहाँ एक ही भंग है। वह पुनरुक्त है फिर भी ग्राह्य है। क्योंकि पूर्व पुनरुक्त भंग अबद्धायु स्थानमें गभित हो गये थे अतः उनको ग्रहण नहीं किया था। यहाँ अवद्धायुस्थानका ही प्रहण नहीं किया है। अतः पुनरुक्त भंगको ग्रहण किया है।
दसवाँ अबद्धायुस्थान भी उसी प्रकार एक सौ सत्ताईस प्रकृतिरूप है । सो इस बद्धायु-२० स्थान और अबद्धायुस्थानमें संख्या या प्रकृतियोंको लेकर भेद नहीं है। अतः यह स्थान प्रहण नहीं करना ॥३७०॥
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