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________________ गो० कर्मकाण्डे गुणस्थानंगळोळ, नरकतिय्यंगायुष्यंगळ, मनंतानुबंधिचतुष्टय में बारुं रहितमागि प्रत्येकं सप्रकृतिसत्वमक्कुं । दशकद्विके क्षपकापूर्व्वकरणानिवृत्तिकरणरे बेरडुं गुणस्थानंगळोळ. प्रत्येकं नरकतिथ्यंग्देवायुष्यंगळ, सप्तप्रकृतिगळ मंतु दश प्रकृतिहीनस प्रकृति सत्वमक्कुं । द्वयोः षट् सप्तचत्वारिंशत् सूक्ष्मसांपराय क्षीणकषायरें बेरडं गुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं सोळट्टेविकगि छक्कं ५ चदुक्कर्म व नात्वत्तारुं लोभसहितमागि नात्वत्तेळु होनमागि सर्व्वप्रकृतिसत्यमक्कुं । द्वयोस्त्रिषष्टिपरिहोनप्रकृतिसत्वं सयोगायोगकेवलिगुणस्थानद्वयदोळ घातिगळ नात्वते । नामकम्मंदोळु पदिमूरु आयुष्यंगळु मूरिंतु त्रिषष्टिहीनप्रकृतिसत्वं प्रत्येकमक्कुं । च शब्द दिदमयोगकेवलिचरमसमयदोळु नूर मूवत्तय्डु प्रकृतिहीनमागि पदिमूरु प्रकृतिसत्वमक्कुर्म दितु त्वं जानीहि शिष्य नोनरिये दु संबोधिसल्पटुडु । आ होन प्रकृतिगळं पेव्वपरु २० ५९८ सासण मिस्से देसे संजमदुग सामगेसु णत्थी य । तित्थाहारं तित्थं णिरयाऊ णिरयतिरियआउ अणं ॥ ३६१ ।। सासादनमिश्रयोद्देशसंयते संयतद्विकोपशमकेषु नास्ति च । तोर्त्याहारं तीत्थं नरकायुन्नरक तिर्यगायुरनंतानुबंधिनः ॥ सासादननोळं मिश्रनोळं देशसंयतनोळं संयतद्विकदोळमुपशमकरोळं होनप्रकृतिगळ १५ यथाक्रर्मादिदं तीर्थाहारत्रिकमुं तीर्त्यमुं नरकायुष्यमुं नरकतिर्य्यगायुर्द्वयमुं नरकतिथ्यंगायुष्यंगळम ३० --- नरकतिर्यगायुरनंतानुबंधिचतुष्कहीनं । क्षपकापूर्वकरणादिद्वये नरकतिर्यग्देवायुः सप्त प्रकृतिहीनं । सूक्ष्मसां पुराये सोलट्ठक्क छिक्कं चदुक्कमिति षट्चत्वारिंशता हीनं । क्षीणकषाये लोभसहितया हीनं । सयोगायोगयोः घातिसप्तचत्वारिंशता नामकर्मत्रयोदशभिरायुस्त्रयेण च हीनं । चशब्दादयोगिचरमसमये पंचत्रिंशच्छतहीनं जानीहि ॥ ३६० ॥ ता अपनीतप्रकृतीराह सासादने मिश्र देशसंयते संयतद्विके उपशमके चापनीतप्रकृतयः क्रमेण तीर्थाहारत्रयं तीर्थं नरकायुष्यं नरकतिर्यगायुर्द्वयं नरकतिर्यगायुषी अनंतानुबंधिचतुष्कं चेति षट् । चशब्दात् क्षपकेषु दस य दुगे इत्यादिनोक्त नरकायु, तिर्यचायु और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करने की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना एक सौ बयालीसका सत्त्व है। क्षपक अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें नरकायु, तिर्यंचायु, देवायु तथा मोहनीयकी सात प्रकृतियोंके बिना एक सौ अड़तीसका सत्त्व २५ है । सूक्ष्म साम्पराय में अनिवृत्तिकरण में व्युच्छिन्न हुई सोलह, आठ, एक, एक, छह, एक, एक, एक, एकके बिना एक सौ दाका सत्त्व है । क्षीणकषाय में लोभ सहित सैंतालीस बिना एक सौ एकका सत्त्व है । सयोगी अयोगी में घातिकर्मों की सैंतालीस, नामकर्मकी तेरह और तीन आयुके बिना पिचासीका सत्व है । 'च' शब्दसे अयोगीके अन्तिम समय में एक सौ पैंतीस बिना तेरहका सत्व है || ३६०॥ घटी हुई प्रकृतियोंके नाम कहते हैं सासादन, मिश्र, देशसंयत, प्रमत्त और अप्रमत्त संयत, और उपशम श्रेणीमें घटायी हुई प्रकृतियाँ क्रमसे तीर्थंकर और आहारकद्विक ये तीन तीर्थंकर, नरकायु, नरकायु और १. योगयोः सप्तचत्वारिंशदधाति त्रयोदशनामध्यायुः हीनं । Jain Education' International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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