SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गो० कर्मकाण्डे कम्म सरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण । रूवेणुदीरणस्स व आचाहा जाव तात्र हवे || १५५ ॥ कर्मस्वरूपेणागतद्रव्यं न चैत्युदयरूपेण । रूपेणोदीरणाया वा आबाधा यावत्तावद्भवेत् ॥ कार्मणशरीर नामकर्मोदयापादितजीवप्रदेशपरिस्पंद लक्षणयोगहेतुविद कार्मण वर्गणायात५ पुद्गलस्कंधंगळु ज्ञानावरणादिमूलोत्तरोत्तर प्रकृतिभेदंगळदं परिणमिसि जीवप्रदेशंगळोळन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशलक्षण बंधरूपदिनिद्देवक्के फलदानपरिणतिलक्षणोदयरूपदिनुदेयावळियनेय्ददेयुमपक्व - पाचनलक्षणोदीरणारूपदिनुदयक केयुं बादरदेन्नेवरमिप्पुवुदन्नेवरमाबाधाकाल में दुपरमागमदोळु पेळपट्टुडु ॥ अनंतर माबाधेयं मूलप्रकृतिगळोळु पेदपरु : १० १८२ उदयं प्रति सप्तानामाबाधा कोटीकोटयुदधीनां । वर्षशतं तत्प्रतिभागेन शेषस्थितीनां च ॥ आयुर्व्वज्जितज्ञानावरणादिसप्तप्रकृतिगळंगाबाधे येनितेनितेंदोडे उदयं प्रति उदयमनाथfafe कोटी कोटिसागरोपमंगळगे शतवर्षप्रमितमक्कुमन्तागुत्तं विरलु तत्प्रतिभागदिदं शेष स्थिति१५ गगेमरियल्प डुगुमदेंतें दो डिल्लि त्रैराशिक विधानं पेळल्पडुगुमदेंतेंदोडेक कोटीकोटिसागरोपम - स्थितिगे नूवर्षमाबाधेयागलु सप्ततिकोटिकोटिसागरोपमस्थितिगे निताबाधेयक्कुमेदितनुपातकार्मणवर्गणायातपुद्गलस्कन्धाः उदयं पडि सत्तण्डं आवाहा कोडकोडि उवहीणं । वासस्यं तप डिभागेण य सेसट्ठिदीणं च ॥ १५६ ॥ कार्मणशरीरनामकर्मोदयापादितजी व प्रदेशपरिस्पन्दलक्षणयोग हेतुना मूलोत्तरोत्तरोत्तर प्रकृतिरूपेण आत्मप्रदेशेषु अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशलक्षणबन्धरूपेणावस्थिताः फलदानपरिणतिलक्षणोदयरूपेण अपक्वपाचनलक्षणोदीरणारूपेण वा यावन्नायान्ति तावान् काल आबाधेत्युच्यते ॥ १५५ ॥ २० अथ तां मूलप्रकृतिष्वाह ३० आयुर्वजितसतकर्मणामुदयं प्रति आबाधा कोटीकोटिसागरोपमाणां शतवर्षमात्री भवति तथा सति शेषस्थितीनां तत्प्रतिभागेनैव ज्ञातव्या । तद्यथा- कार्मण शरीर नामक नामकर्मके उदयसे और जीवके प्रदेशोंकी चंचलतारूप योगके निमित्तसे कार्मण वर्गणारूपसे आये पुद्गलस्कन्ध मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतिरूप होकर २५ आत्माके प्रदेशों में परस्पर में प्रवेश करते हैं उसीको बन्ध कहते हैं । बन्धरूपसे अवस्थित वे पौद्गलिक कर्म जबतक उदयरूप या उदीरणारूप नहीं होते उस कालको आबाधा कहते हैं । अर्थात् कर्मप्रकृतिका बन्ध होनेपर जबतक उसका उदय या उदीरणा नहीं होती, तबतकका समय उस प्रकृतिका आबाधा काल कहा जाता है। फल देने रूप परिणमनको तो उदय कहते हैं | और असमय में ही अपक्व कर्मका पकना उदीरणा है || १५५।। आगे मूल प्रकृतियों में आबाधा कहते हैं आयुको छोड़ सात कर्मोंकी उदयकी अपेक्षा आबाधा एक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण ferfast एक सौ वर्ष होती है । ऐसा होनेपर शेष स्थितिओंकी आबाधा इसी प्रतिभागसे जानना । वही कहते हैं - एक कोड़ाकोड़ी सागर की सौ वर्ष आबाधा होती है तो सत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy