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गो० जीवकाण्ड
समाधान किया है । तथा उनके समर्थनमें कुछ आर्ष गाथाएँ भी दी है। उन्हींके आधारसे यह नौ प्रश्न चूलिका ली गयी प्रतीत होती है।
पंच भागहार चूलिकामें उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम इन पांच भागहारोंका कथन है। इन भागहारोंके द्वारा शुभाशुभकर्म जीवके परिणामोंका निमित्त पाकर अन्य प्रकृतिरूप परिणमन करते हैं। जैसे शुभ परिणामोंके निमित्तसे पूर्वबद्ध असातावेदनीय कर्म सातावेदनीय रूप परिणत हो जाता है। किस-किस प्रकृति में कौन-कौन भागहार सम्भव है और किस-किस भागहारको कौन-कौन प्रकृतियाँ है यह सब कथन भी है। कि पांचो भागहार एक भाजक राशिके समान हैं अतः उनका परस्पर में अल्पबहत्व भी बतलाया है। पंचसंग्रहमें यह कथन नहीं है।
तीसरी दशकरण चलिकामें बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा, सत्ता, उदय, उपशम, निवृत्ति, निकाचना इस दस करणोंका कथन किया है और बतलाया है कि कौन करण किस गुणस्थान तक होना है। कर्मपरमाणु ओंका आत्माके साथ सम्बद्ध होना बन्ध है। यह सबसे पहली क्रिया है। करण नाम क्रियाका है। इसके बिना आगेका कोई करण नहीं होता । कमकी दूसरी क्रिया या अवस्था उत्कर्षण है। स्थिति और अनुभागके बढ़ने को उत्कर्षण कहते हैं। तीसरा करण अपकर्षण उससे विपरीत है, अर्थात स्थिति और अनुभागके घटतेको अपकर्षण कहते हैं। बन्धके बाद ही ये दोनों करण होते है। किसी अशुभकर्मका बन्ध होने के पश्चात् यदि जीव शुभपरिणाम करता है तो पूर्व बद्ध कर्ममें स्थिति अनुभाग घट जाता है। इसी तरह अशुभकर्मकी जघन्य स्थिति बांधकर यदि कोई और भी अधिक पापकार्यमें रत रहता है तो उसकी स्थिति अनुभाग बढ़ जाता है। बंधने के बाद कर्मके सतामें रहनेको सत्त्वकरण कहते हैं । कर्मका अपना फल देना उदय है। नियत समयसे पूर्व में फलदानको उदीरणा कहते हैं। उदीरणासे पहले अपकर्षण द्वारा कर्मकी स्थितिको घटा दिया जाता है। यदि कोई व्यक्ति परी आय भोगे बिना असमयमें हो मर जाता है तो उसे आयुकर्मकी उदीरणा कहते है। एक कर्मका दूसरे सजातीय कर्मरूप होनेको संक्रमण करण कहते हैं। संक्रमण मल कर्म-प्रकृतियों में नहीं होता अर्थात् न ज्ञानावरण दर्शनावरणरूप या किसी अन्यकर्मरूप होता है और न दर्शनावरण या मोहनीय आदि ज्ञानावरणरूप होते हैं। किन्तु एक कर्मके अवान्तर भेदोंमेंसे एक भेद अन्य सजातीय प्रकृतिरूप हो सकता है। जैसे सातावेदनीय असातावेदनीयरूप और असातावेदनीय सातावेदनीय रूप हो जाता है। किन्तु आयुकर्म के भेदों में संक्रमण नहीं होता। नरककी आयु बाँध लेनेपर मरकर नरकमें ही जन्म लेना होगा।
कर्मका उदयमें आनेके अयोग्य होना उपशम है। उसमें संक्रमण और उदयका न हो सकना निधत्ति है। और उत्कर्षण अपकर्षण संक्रमण उदयका न हो सकना निकाचना है। कर्मों में-ये दसकरण होते है। ये सब जीवके भावोंपर ही अवलम्बित हैं। अन्य किसीका इनमें कर्तत्व नहीं है।
५. बन्धोदयसत्त्वयुक्तस्थानसमुत्कीर्तन
एक जीवके एक समयमें जितनी प्रकृतियोंका बन्ध, उदय, सत्त्व सम्भव है उनके समूहका नाम स्थान है। इस अधिकारमें पहले आठों मूलकों को लेकर और फिर प्रत्येक कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंको लेकर बन्ध स्थानों, उदय स्थानों और सत्त्व स्थानोंका कथन है। जैसे मूल कर्मों का कथन करते हुए कहा है कि तीसरे गुणस्थानके सिवाय अप्रमत्त पर्यन्त छह गुणस्थानोंमें एक जीवके आयुकर्म के बिना सातका अथवा आयुकर्म सहित आठका बन्ध होता है। तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थानमें आयुके बिना सात कर्मों का बन्ध होता है। दसवें गुणस्थानमें आयु और मोहनीयके बिना छह ही कर्मोका बन्ध होता है । ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में एक वेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है। और चौदहवें गुणस्थानमें एक भी कर्मका बन्ध नहीं होता । अतः आठ कर्मों के चार बन्ध स्थान है-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छह प्रकृतिक, एक प्रकृतिक ।
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