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________________ प्रस्तावना सम्यग्दृष्टि देव और नारकी मनुष्यायुका ही बन्ध करते हैं । जिस स्थानमें चारों आयुकी सत्ता रहती है उसमें चारों युके बन्धको लेकर बारह भंग बद्धायुके होते है-यथा १. भुज्यमान नरकामु बध्यमान मनुष्यायु । २. भुज्यमान नरकायु बध्यमान तियंचायु । ३. भुज्यमान तियंचायु बध्यमान नरकायु । ४. भुज्यमान तियंचायु बध्यमान तियंचायु । ५. भुज्यमान तियंचायु बध्यमान मनुष्यायु । ६. भुज्यमान तियंचायु बध्यमान देवायु । ७. भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु । ८. भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान तियंचायु । ९. भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान मनुष्यायु । १०. भुज्यमान मनुष्यायु वध्यमान देवायु । ११. भुज्यमान देवायु बध्यमान मनुष्यायु । १२. भुज्यमान देवायु बध्यमान तियंचायु । इनमेसे जिन भंगोंमें दोनों आयु समान है केवल भुज्यमान और बध्यमानका ही भेद वे भंग पुनरुक्त होनेसे अपुनरुक्त पांच ही भंग बद्धायुके होते हैं। और अबद्धायुके चार आयुकी अपेक्षा चार भंग होते है। इस प्रकार प्रत्येक गुणस्थानमें स्थानों और भंगोंका कथन इस अधिकारमें है। इस अधिकारको अन्तिम गाथामें ग्रन्थकारने कहा है-इन्द्रनन्दि गुरुके पासमें सकल सिद्धान्तको सुनकर कनकनन्दो गुरुने सत्त्वस्थानका कथन किया। स्व. पं. जुगल किशोरजी मुख्तारने पुरातन वाक्यसूची (पृ. ७२-७४ ) की प्रस्तावनामें लिखा है कि उक्त सत्त्वस्थान ग्रन्थ विस्तरसत्त्व त्रिभंगीके नामसे आराके जैन सिद्धान्तभवनमें मौजूद है। उसमें साफ तौरपर इन्द्रनन्दिको ही गुरुरूपसे उल्लेखित किया है । इस सत्त्वस्थानको नेमिचन्द्र ने अपने गोम्मटसारमें प्रायः ज्योंका त्यों अपनाया है। आराकी उक्त प्रतिके अनुसार प्रायः८ गाथाएं छोड़कर मंगलाचरण और अन्तिम गाथा सहित सब गाथाओंको अपने ग्रन्थका अंग बनाया है। कहीं-कहीं भेद भी है। उक्त प्रस्तावनामें उसका विवरण देखा जा सकता है। इस तरह यह अधिकार कनकनन्दिके उक्त सत्त्वत्रिभंगीका ऋणी है। ४. त्रिचूलिकाधिकार ___इस अधिकारमें तीन चूलिकाए हैं-नवप्रश्नचूलिका, पंचभागहारचूलिका, और दशकरणचूलिका । पहली नौ प्रश्नचूलिकामें नौ प्रश्नोंका समाधान किया है। ये नो प्रश्न इस प्रकार है-१. उदय व्युच्छित्तिकै पहले बन्धको व्युच्छित्ति किन प्रकृतियों की होती है। २. उदयव्यच्छित्तिके पीछे बन्धकी व्यच्छित्ति किन प्रकृतियोंकी होती है ? ३. उदयव्युच्छित्तिके साथ बन्धकी व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोंकी होती है। ४. अपने उदयमें बंधनेवाली प्रकृतियां कौन है, ५. अन्यके उदयमें बंधनेवाली प्रकृतियां कौन हैं ? ६. अपने तथा परके उदयमें बंधनेवाली प्रकृतियां कौन हैं ? ७. निरन्तर बंधनेवाली प्रकृतियां कौन हैं ? ८. जिनका सान्तरबन्ध होता है वे प्रकृतियां कौन है ? ९. जिनका निरन्तर बन्ध भी होता है और सान्तरबन्ध भी, वे प्रकृतियाँ कोन है । इन नो प्रश्नोंका उत्तर इस चूलिकामें दिया है। प्रा. पंचसंग्रहके तीसरे अधिकार के अन्तमें नौ प्रश्नचूलिका आती है। तथा षट् खण्डागमके अन्तर्गत तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्व विचयको धवला टोकामें ( पु. ८, पृ. ७-१७ ) उक्त नो प्रश्न उठा कर उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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