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________________ गो० जीवकाण्ड सादि अणादी धुव अद्धवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स । तदियो सादि य सेसो अणादि धुव सेसगो आऊ ॥ १२२ ॥ -कर्मकाण्ड । पञ्चसंग्रहमें बन्धके नवम भेद स्वामित्वको अपेक्षा बन्धके कथनमें गुणस्थान और मार्गणाओंमें बन्ध, बन्धव्युच्छित्ति आदिका कथन है। तदनन्तर स्थितिबन्धका कथन है, जैसा कर्मकाण्डके इस दूसरे अधिकारमें है। किन्तु पञ्चसंग्रहसे कर्मकाण्डके कथन में विशेषता है। कर्मकाण्डमें एकेन्द्रिय आदि जीवोंके होनेवाले स्थितिबन्ध का भी कथन है. जो पञ्चसंग्रह में नहीं है। अनुभागवन्ध और प्रदेशबन्धका कथन पञ्चसंग्रहमें भी है और कर्मकाण्ड उसका ऋणी हो सकता है किन्तु कर्मकाण्डके कथनमें उससे विशेषता भी है। प्रदेशबन्धका कथन करते हुए पञ्चसंग्रहमें तो समय प्रबद्धका विभाग केवल मूल कर्मों में ही कहा है किन्तु कर्मकाण्डमें उत्तरप्रकृतियोंमें भी कहा है। तथा प्रदेशबन्धके कारणभूत योगके भेदों और अवयवोंका भी कथन किया है यह कथन पञ्चसंग्रहमें नहीं है । इस प्रकरण में पञ्चसंग्रहकी कई गाथाएं संगृहीत हैं। उदयप्रकरणमें कर्मों के उदय उदीरणा आदिका कथन गुणस्थान और मार्गणाओंमें है। प्रत्येक गुणस्थान और मार्गणामें प्रकृतियोंके उदय, अनुदय उदयव्युच्छित्तिका कथन है। सत्त्व प्रकरणमें भी गुणस्थान और मार्गणाओंमें प्रकृतियों के सत्त्व, असत्त्व और सत्त्वव्युच्छित्तिका कथन है। मार्गणाओं में बन्ध, उदय,सच्वादिका कथन अन्यत्र नहीं मिलता। आचार्य नेमिचन्द्र ने उसे स्वयं फलित करके लिखा प्रतीत होता है। उदय और सत्य प्रकरणको अन्तिम गाथामें इसकी झलक मिलती है । यथा कम्मेवाणाहारे पयडीणं उदयमेवमादेसे । कहियमिणं बलमाहवचंदजियणेमिचंदेण ॥ ३३२ ॥ कम्मेवाणाहारे पयडीणं सत्तमेवमादेसे कहियमिणं बलमाहवचंदच्चियणेमिचंदेण ।। ३५६ ॥ -कर्मकाण्ड । अर्थात यह कथन आचार्यनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने किया है। ३. सत्त्वस्थान भंगाधिकार तीसरे अधिकारका नाम सत्त्वस्थान भंगाधिकार है। इसको प्रथम गाथामें जिसका क्रमांक ३५८ है, भगवान् महावीरको नमस्कार करके सत्त्वस्यानको भंगों के साथ कहने की प्रतिज्ञा की है। और आगेकी गाथामें कहा है-पिछले अधिकारके अन्त में जो सत्त्वस्थानका कथन किया है वह आयके बन्ध और अब भेद न करके किया है । इस अधिकारमें भंगके साथ कथन है। एक समय में एक जीवके संख्याभेदको लिये हए जो प्रकृति समहका सत्व पाया जाता है उसे स्थान कहते हैं। और समान संख्यावाली प्रकृतियोंमें जो प्रकृतियोंका परिवर्तन होता है उसे भंग कहते हैं। जैसे किन्हीं जीवोंके मनुष्यायु देवायुके साथ एक सौ पैंतालीसका र , मनुष्याय देवायके साथ एक सौ पैंतालीसका सत्त्व पाया जाता है और किन्हीं जीवोंके तियंचायु नरकायुके साथ एक सौ पैंतालीसका सत्त्व पाया जाता है। यहां भंगभेद होता है । एक जीवके दी आयुकी सत्ता रह सकती है। एक आयु भुज्यमान-जो वह भोग रहा है, एक आयु बध्यमान-जो उसने आगामी भवको बाँधी है। जिसने अभी परभवकी आयुका बन्ध नहीं किया उसके एक भुज्यमान आयुकी सत्ता रहती है। देवगतिमें और नरकगतिमें मनुष्य और तियंच दो हो आयुका बन्ध होता है। मनुष्य और तियंचोंमें चारों आयुका बन्ध हो सकता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तियंच देवायुका ही बन्ध करते हैं। तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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