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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६७ प्रकृतिगळिल्लल्लि शून्यंगळेयप्पुवु । सयोगकेवलियोळ वाद प्रतिव्युच्छित्तियक्र्छ। व्युच्छितिये बुदेन दोर्ड उपरितनगुणस्थानेष्वभावो च्छित्तिः। एल्लि व्यच्छितियेदु पेठल्पटुदल्लिया प्रकृतिगळग मेलण गुणस्थानदोलु बंधाभाव बुदत्यं । तंतम्न गुणस्थानचरमसमयदोळु बंधन्युच्छित्ति बंधविनाशम बी विनाशविषयदो द्वौ नयाविच्छन्ति येरडु नयंगठनोडंबडुवरु । उप्पादाणुच्छेद, अणुप्पादाणुच्छेदो चेदि । उत्पादानुच्छेदमुमनुत्पादानुच्छेदमुदितु । तत्थ अल्लि ५ उप्पादाणुच्छेदो णाम उत्पादानुच्छेदमें बुदु । दवडियो द्रव्यात्थिकः द्रव्याथिक। तेण सत्तावढाए चेव विणासमिच्छदि । अरि सत्वावस्थयोळे विनाशमनिच्छथिसुगुं। असत्ते असत्वे असत्वदोछु। बुद्धिविसयमइक्कंतभावेण बुद्धिविषयमतिक्रांतभावदिदं वयणगोयराइक्कते वचनगोचरातिक्रांतमागुत्तिरलु। अभावववहाराणुववत्तीदो अभाव व्यवहारानुपपत्तितः। अभावव्यवहारानुपत्तियत्तणिदं । ण च अभावो णाम अस्थि न च अभावो नामास्ति अभाव में बुदिल्ल । तप्परिच्छिक्दो १० पमाणाभावादो तत्परिच्छिदतः प्रमाणस्याभावात् । सत्तविसयाणं पमाणाणमसत्ते वावारविरोहादो-सत्त्वविषयाणां प्रमाणानां असत्त्वे व्यापारविरहात सत्त्वविषयंगळप्प प्रमाणं गळगसत्त्वदोळु व्यापारमप्पुरिदं । अविरोहे वा अविरोधे वा । अविरोधमादोडे मेणु । गड्डहाँसंगपि पमाणविसयं होज्ज गईभमुंगोपि प्रमाणविषयो भवेत् गईभशृंगमुं प्रमाणविषयमागलि। ण च एवमणुवलंभादो न चैवमनुपलंभात् इन्तल्तनुपलंभमप्पुरिदं । तन्हा भावो चेव तस्माद्भावश्च एव अरिदं भावमे। १५ अभावोत्ति सिद्धं अभावमें दितु सिद्धं ॥ क्षीणकपाययोः शून्यम् । सयोगकेवलिन्येका। अयोगकेवलिनि बन्धो व्युच्छित्तिरपि न ।। तत्र बन्धव्युच्छित्तौ द्वो नयाविच्छन्ति-उत्पादानुच्छेदोऽनुत्पादानुच्छेदश्चेति । तत्र उत्पादानुच्छेदो नाम द्रव्याथिकः । तेन सन्वावस्थायामेव विनाशमिच्छति । असत्त्वे बुद्धिविषयातिक्रान्तभावेन वचनगोचरातिक्रान्ते सति अभावव्यवहारानपपत्तेः । न चाभावो नामास्ति तत्परिच्छेदकप्रमाणाभावात् । सत्त्वविषयाणां प्रमाणानामसत्त्वे व्यापारविरोधात् । अविरोधे वा गर्दभशृङ्गमपि प्रमाणविषयं भवेत् । न चैवमनुपलम्भात् । तस्माद्भाव एव अभाव २० इति सिद्धम् । अनुत्पादानुच्छेदो नाम पर्यायाथिकः । तेन सत्त्वावस्थायामभावव्यपदेशमिच्छति । भावे उपपाँच, सूक्ष्मसाम्परायमें सोलह, उपशान्तकषाय क्षीणकपायमें शून्य, सयोगकेवलीमें एक की बन्धव्युच्छित्ति होती है। अयोगकेवलीमें बन्ध भी नहीं होता व्युच्छित्ति भी नहीं होती । बन्धव्यच्छित्तिमें दो नयसे कथन है एक उत्पादानुच्छेद और दूसरा अनुत्पादानुच्छेद । उत्पादानुच्छेद नाम द्रव्याधिक का २५ है। इस नयके अभिप्रायसे सत्त्व अवस्था में ही विनाश होता है। जहाँ सत्त्व ही नहीं है वहाँ बुद्धि का व्यापार ही सम्भव नही है । और ऐसी अवस्थामें वचनके अगोचर होनेसे उसमें अभाव का व्यवहार सम्भव नहीं है। दूसरे, अभाव नामका कोई पदार्थ नहीं है क्योंकि सको ग्रहण करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है। जो प्रमाण सत्पदार्थको जानते हैं वे तो असपदार्थको जानने में व्यापार नहीं कर सकते। यदि कर सकते हैं तो गधेके सींग भी प्रमाणके विषय होने चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि ऐसा पाया नहीं जाता। अतः सिद्ध होता है कि भाव ही अभावरूप होता है। अनुत्पादानुच्छेद नाम पर्यायाथिक नयका है। उसके अनुसार असत्व अवस्थामें अभावका व्यवहार होता है क्योंकि भावके होते हुए अभावका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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