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________________ ६८ गो० कर्मकाण्डे मनुप्पादाणुच्छेदो णाम अनुत्पादानुच्छेदो नाम अनुत्पादानुच्छेदमें बुदु। पज्जडियो णयो पर्यायास्थिको नयः। पर्यायास्थिकनयं । तेण असत्तावत्थाए तेनासत्त्वावस्थायां अदरिनसत्वावस्थेयो । अभावववएसमिच्छदि अभावव्यपदेशमिच्छति । भावे ज्वलं भलाणे अभावत्तविरोहादो भावे उपलभ्यमाने अभावत्वविरोधात् । ण च पडिसेहावितओ भाओ अभावत्तमल्लियइ न च प्रतिषेधाविषयो भाओऽभावत्वमाश्रयति । प्रतिषेधाविषयमप्प भावमभावत्वमनायिसदु। पडिसेहस्स फळाभावपसंगादो प्रतिषेधस्य फलाभावप्रसंगात् । प्रतिषेधक्क फलाभावप्रसंगदिदं । ण च विणासो णत्थि न च विनाशो नास्ति । न चैवं इन्तल्तु। विनाशो नास्ति विनाशभिल्ल घादि अधादोणं घात्ययातीनां । घात्यपातिगळ्ग । सम्वत्थमवट्ठाणाणुबळं भादो सर्वत्रावस्थानानुपलंभात् सर्वत्रा वस्थानानुपलंभदणिदं । ण च भाओ अभायो होदि न च भावो अभावो भवति भावमभावमुमा१० गदु। भावाभावाणमण्णोण्णविरुद्धाणमेयत्त विरोहावोत्ति। भावाभावानामन्योन्यविरुद्धानामेकत्व विरोधादिति । भावाभावंगळगन्योन्यविरुद्धंगळ्यकत्वविरोधमुंटप्पुर । एत्थ पुण सुत्ते-अत्र पुनःसूत्रे द्रव्याथिकनयः । उप्पादाणुच्छेदोकळंबिदो उत्पादानुच्छेदोवलंबितः । उत्पादस्य विद्यमानस्य अनुच्छेदोऽविनाशो यस्मिन्नसावुत्पादानुच्छेदो नयः। एंदितु द्रव्याथिकनयापेक्षेयिवं तंतम्म गुण स्थानद चरमसमयदोळ बंधव्युच्छित्तिबंधविनाशमप्पुरिदं । पर्यायाथिकनयदिदमनन्तरसमयदोळु १५ बंधविनाशमक्कुमिन्तु ॥ लम्यमाने अभावत्वविरोधात । न च प्रतिषेधाविषयो भावोऽभावत्वमाश्रयति प्रतिषेधस्य फलाभावप्रसङ्गात् । न च विनाशो नास्ति धात्यघातिनां सर्वत्रावस्थानानुपलम्भात । न च भावोऽभावो भवति भावाभावयोरन्योन्यविरुद्धयोरेकत्वविरोधात् इति । अत्र पुनः सूत्रे द्रव्यापिकनयः उत्पादानुच्छेदोऽवलम्बितः । उत्पादस्य विद्यमानस्यानुच्छेदोऽविनाशो यस्मिन्नसावुत्पादानुच्छेदो नयः, इति द्रव्याथिकनयापेक्षया स्वस्व२० गुणस्थानचरमसमये बन्धव्युच्छित्ति:-बन्धविनाशः । पर्यायापिकनयेन तु अनन्तरसमये बन्धनाशः ॥९४|| व्यवहार होने में विरोध है। क्योंकि भावका निषेध किये विना अभाव नहीं होता। अतः वह अभावपने का आधार नहीं हो सकता। यदि हो तो फिर निषेधका कोई फल नहीं रहेगा। कोका विनाश नहीं होता ऐसा भी नहीं है क्योंकि घाति और अघाति कर्म सर्वत्र नहीं पाये जाते । न भाव-अभावरूप होता है क्योंकि भाव और अभाव परस्पर में विरोधी होनेसे एक २५ नहीं हो सकते । यहाँ व्यच्छित्तिके कथनमें उत्पादानुच्छेदरूप द्रव्याथिकनयका अवलम्बन लिया है। उत्पाद अर्थात् विद्यमानका अनुच्छेद अर्थात् अविनाश जिसमें है वह उत्पादानुच्छेदनय है। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा अपने-अपने गुणस्थानके अन्तिम समयमें बन्धकी व्युच्छित्ति अर्थात् विनाश होता है। किन्तु पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा तो अनन्तर समयमें बन्धका नाश होता है। ___भावार्थ-इसका आशय यह है कि जिस गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियों की व्युच्छित्ति कही है उन प्रकृतियोंका बन्ध उस गुणस्थान के अन्त समयपर्यन्त होता है, उसमें उनके बन्धका अभाव नहीं होता। उससे ऊपरके गुणस्थानोंमें उनके बन्धका अभाव होता है। अतः जिस गुणस्थान में जितनी प्रकृतियोंका बन्ध कहा है उसमें उतनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है। सो पूर्व-पूर्वके गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियोंका बन्ध कहा है उनमें-से उसी गुणस्थानमें ३५ जितनी प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति कही हो उन्हें घटानेपर आगे-आगेके गुणस्थानमें बन्ध का प्रमाण आता है। तथा जितनी प्रकृतियाँ बन्ध योग्य कही हों उनमें से जितनी प्रकृतियोंका ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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