SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति बीवतत्त्वप्रदीपिका अनन्तरं मिथ्यावृष्टियषोडशबंधव्युच्छित्तिप्रकृतिगळं पेळ्दपर : मिच्छत्तहुडसंढासंपत्तेयक्खथावरादावं । सुहुमतियं वियलिंदी गिरयदुणिरयाउगं मिच्छे ॥९५।। मिथ्यात्वहुंडषंढाऽसंप्राप्तकामस्थावरातपाः। सूक्ष्मत्रिकं विकलेंद्रियनरकद्विकनरकायुष्कं मिथ्यादृष्टौ ॥ मिथ्यात्वप्रकृतियुं १ हुंडसंस्थानमुं १ षंढवेदमुं १ असंप्राप्तसृपाटिकासंहननमुं १ एकेंद्रियजातिनाममुं १ स्थावरनाममुं १ आतपनाममुं १ सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणशरीरमेंब सूक्ष्मत्रितयमुं ३ द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रियमुमेंब विकलेंद्रियत्रितयमुं ३ नरकगति तत्प्रायोग्यानुपूठळ्यम ब नरकद्विकमुं २ नरकायुष्यमुमें दिती षोडशप्रकृतिगळु केवलं मिथ्यात्वोदयहेतुकंगळप्पुरिवं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानचरमसमयदोळु बंधव्युच्छित्तिगळप्पुवु ॥ अनंतरं सासादनन व्युच्छित्तिगळं पेन्दपरु : विदियगुणे अणथीणतिद्भगतिसंठाणसंहदिचउक्कं । दुग्गमणित्थीणीचं तिरियदुगुज्जोवतिरिआऊ ॥९६॥ द्वितीयगुणे अनंतानुबंधिनः स्त्यानगृद्धित्रितयं दुर्भगत्रितयं संस्थानसंहननचतुष्कं दुर्गमनं स्त्रीनीचं तिय॑गिद्वकमुद्योततिर्यगागूंषि ॥ द्वितीयगुणे सासावनगुणस्थानदोळ अनंतानुबंधिकषायचतुष्टयम ४ स्त्यानगृद्धि निवानिद्रा प्रचलाप्रचलात्रितयमुं ३ दुर्भगदुःस्वर अनादेयमेंब दुर्भगत्रितयमुं३ न्यग्रोधपरिमंडलस्वातिकुब्जवामनसंस्थानचतुष्टयमुं ४ बज्रनाराच नाराच अर्द्धनाराच कोलितसंहननमें ब संहननचतुष्टयमुं ४, अथ ताः षोडशादि प्रकृतिर्गाथाष्टकेनाह मिथ्यात्वं हुंडसंस्थानं षण्ठवेदः असंप्राप्तसृपाटिकासंहननं एकेंद्रियं स्थावरातपः सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणानि २० द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणि नरकगतितदानुपूर्ये नरकायुश्चेति षोडश केवलमिथ्यात्वोदयहेतुबन्धत्वात् मिथ्यादृष्टिगुणस्थानचरमसमये एष व्युच्छिद्यन्ते ॥९५॥ सासादनगुणस्थानचरमसमये अनन्तानुबन्धिचतुष्टयं स्त्यानगद्धिनिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाः दुर्भगदुःस्वरानादेयानि न्यग्रोधपरिमण्डलस्वातिकुब्जवामनसंस्थानानि वज्रनाराचनाराचार्धनाराचकीलितसंहननानि अप्रशस्त बन्ध कहा हो उन्हें घटानेपर शेष जितनी प्रकृतियाँ रहें उन्हें अबन्धरूप जानना । इस तरह २५ बन्ध, व्युच्छित्ति और अबन्ध ये तीन अवस्थाएँ होती हैं । उन्हींका कथन आगे करेंगे ॥९४।। उन सोलह आदि व्युच्छित्ति प्रकृतियों को आठ गाथाओं से कहते हैं मिथ्यात्व, हुंडसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु ये सोलह प्रकृतियाँ केवल मिथ्यात्वके उदयके कारण ही बँधती हैं। अत: ३० मिध्यादृष्टि गुणस्थान के अन्तिम समयमें ही ये व्युच्छिन्न होती हैं ॥१५॥ सासादन गुणस्थानके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धी चार, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान, वानाराचसंहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलितसंहनन, अप्रशस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy