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________________ OP गो० कर्मकाण्डे नुपपत्तिइंदं तीर्थकरत्वबंधप्रारंभयोग्यविशुद्धिविशेषासंभवमप्पुरिदम सिद्धमादुदु । मनुष्यरुगळे तीर्थबंधप्रारंभकरप्परें बुदत्थं ॥ तिर्यग्गतिवज्जितमागि शेषगतित्रयोळ तीर्थकरबंध संभविसुगुभेकेदोडे तीर्थबंधकालमुत्कृष्टदिदमन्तर्मुहूर्तधिकाष्टवर्षहीनपूर्वकोटिद्वयाधिकत्रयस्त्रिशत्सागरोपमकालप्रमाणमप्पुरिदं । केवलिद्वयश्रीपादोपान्तदोळेब नियममेकेदोर्ड तत्समीपदोळे दर्शनवि५ शुद्धचादिनिबंधनविशुद्धिकारणतत्त्वाधिगमविशेषं संभविसुगुमप्पुरिदं ॥ अनंतरं गुणस्थानंगळोळु प्रकृतिगळोळु प्रकृतिगळ्गे बंधव्युच्छित्तियं पेळ्दपरु : सोलस पणवीस णभं दस चउ छक्केक्क बंधवोच्छिण्णा। दुग तीस चदुरपुव्वे पण सोलस जोगिणो एक्को ॥९४।। षोडश पंचविशतिन्नभः दश चतुः षट्कैक्कबंधव्युच्छित्तयः। द्विकस्त्रिशच्चतस्रोऽपूर्वे पंच १० षोडश योगिन्येकः ॥ मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलिपयंतमाद गुणस्थानंगळोळु यथासंख्यमागि षोडशपंचविंशति शून्यं दश चतुः षट्क एक प्रकृतिगळु तंतम्म गुणस्थानचरमसमयदोळु बंधव्युच्छित्तिगळप्पुवु । मेले अपूर्वकरणगुणस्थानत्रिभागंगळोळं द्वित्रिशच्चतुः प्रकृतिगळु व्युच्छित्तिगळप्पुवु। अनिवृत्तिसूक्ष्म सांपरायरोळु क्रदिदं पंचषोडशप्रकृतिगळु व्युच्छित्तिगळप्पुवु । उपशांतक्षीणकषायरोळ व्युच्छित्ति १५ न च तिर्यग्गतिवजितगतित्रयतीर्थबन्ध...तद्वन्धकालस्योत्कृष्टेनान्तर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षानपूर्वकोटिद्वया धिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपममात्रत्वात् । केवलिद्वयान्त एवेति नियमः तदन्यत्र तादृग्विशुद्धिविशेषासंभवात् ॥९३॥ अथ गुणस्थानेषु व्युच्छित्तिमाह मिथ्यादृष्टी षोडशप्रकृतयो बन्धव्युच्छिन्नास्तासामुपरि बन्धो नास्तीत्यर्थः । सासादने पञ्चविंशतिः। मिश्रे शून्यं व्युच्छित्यभाव इत्यर्थः । असंयते दश । देशसंयते चतस्रः । प्रमत्ते षट् । अप्रमत्ते एका । अपूर्वकरणस्य २० सप्तभागेषु प्रथमे द्वे षष्ठे त्रिंशत् । सप्तमे चतस्रः । अनिवृत्तिकरणे पञ्च । सूक्ष्मसाम्पराये षोडश । उपशान्त- . 'णरा' ऐसा विशेषण शेषगतियोंका निराकरण करता है क्योंकि अन्य गतियों में विशिष्ट चिन्तन क्षयोपशम आदि विशेष सामनी का अभाव होता है किन्तु तिर्यञ्चगतिको छोड़ शेष तीन गतियों में तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका अभाव नहीं है क्योंकि तीर्थकरके बन्धका काल उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूत अधिक आठवर्षकम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीससागर प्रमाण कहा है। २५ अर्थात् यद्यपि तीर्थकरके बन्ध का प्रारम्भ मनुष्य पनि में ही होता है तथापि उसके नरक देव आदि गतिमें जानेपर वहाँ भी बन्ध होता रहता है केवल तिर्यश्च गतिमें ही बन्ध नहीं होता। केवली श्रुतकेवलीके निकट में ही बन्धका नियम कहनेका कारण यह है कि अन्यत्र उस प्रकार की विशेष विशुद्धि संभव नहीं है ॥९३।।। गुणस्थानोंमें प्रकृतियोंके बन्धकी व्युच्छित्ति कहते हैं३० मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सोलह प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। इसका आशय यह है कि उन प्रकृतियों का बन्ध दूसरे आदि गुणस्थानों में नहीं होता। सासादनमें पञ्चीस पकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। मिश्रमें शून्य है अर्थात् यहाँ व्युच्छिति नहीं होती। असंयतमें दस, देशसंयतमें चार, प्रमत्तमें छह, अप्रमत्तमें एक, अपूर्वकरणके सात भागोंमें-से पहलेमें दो, छठे भागमें तीस, सातवे भागमें चार की व्युच्छिति होती है। अनिवृत्तिकरणमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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