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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६५ जसि शेष मिथ्याद्यप्रमत्तगुणस्थानावसानमाद गुणस्थानवत्तंगळोळु यथायोग्यमायुब्बंधमकुं । मत्ते अपूर्व्यकरणादिगळोळळिल्ल ॥ तु तीबंधक्के विशेषनियममं पेदपरु : पढमुवसमये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि । तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुर्गते ||९३ || प्रथमोपशमसम्यक्त्वे शेषत्रये अविरतादिचत्वारस्तोत्थं करबंधप्रारंभकाः नराः केवलि - द्वयोपांते ॥ प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळं शेषद्वितीयोपशमसम्यक्त्वक्षायोपशमिकसम्यक्त्वक्षायिक सभ्यत्वमें सम्यक्त्वत्रयदोळं असंयताद्यप्रत्तावसानमाद नाल्कुं गुणस्थानवत्तगळु मनुष्यरुगळे तीर्थकरनामकर्म्मबंधप्रारंभकरप्परंतप्पोडं प्रत्यक्ष केवलिश्रुतके वलिद्वय श्रीपादोपांत्यदोळेयप्पर । यिल्लि १० प्रथमोपसम्यक्त्ववोळ मेदितु भिन्नविभक्तिकरणमयतरज्ञापकमक्कुमं ते बोडे प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालं स्तोकांतर्मुहूर्त्तमपुर्वारवमल्लि षोडशभावनासमृद्धि समनिसदेवु केलंबराचार्य रे बरवर पक्षबोळा सम्यक्त्वदोळु तीत्थंबंधप्रारंभमिल्ल । नरा एंबी विशेषणमेके दोडे मनुष्यगतिजरल्लदुळिद गतिज तोथंबंधप्रारंभकत्वयोग्यते यिल्लदे ते बोर्ड नारकरुगळगे पेरगे पेव विशुद्धिनिबंधन के वलिद्वयश्री पावसन्निधि संभविसदप्पुदरिदं नारकरुं तियंचरुगळगे विशिष्टप्रणिधानक्षयो- १५ पशमाभावदेव तत्त्वार्थाधिगमविशेषाभावदत्र्त्तार्णवं तोथंबंधप्रारंभक्कनुपपत्तिर्यदमा तिय्यं चरुं योग्यरल्लमेके बोर्ड तीर्थंकरबंधकारणदरुशन विशुद्धयादि भावनापरमप्रकर्षमिल्लत्तणदं । देवगतिजग्गेयुं मनुष्यरंते विशिष्टप्रणिधानाभावविवं क्रीडाशी लवददमभीक्ष्णज्ञानोपयोगादिभावना तेष्वेव । नापूर्वकरणादिषु । शेषप्रकृतिबन्धः तु पुनः मिथ्यादृष्ट्यादिषु स्वस्वबन्धव्युच्छित्तिपर्यन्तेष्वेव ||१२|| तीर्थबन्धस्य विशेषनियममाह प्रथमोपशमसम्यक्त्वे शेष- द्वितीयोपशम क्षायोपशमिक क्षायिकसम्यक्त्वेषु चासंयताद्यप्रमत्तान्तमनुष्या एव तीर्थंकरबन्धं प्रारभन्ते । तेऽपि प्रत्यक्ष केवलिश्रुतकेवलिश्रीपादोपान्ते एव । अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्व' इति भिन्नविभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकान्तर्मुहूर्तकालत्त्रात् षोडशभावनासमृद्ध्यभावात्तद्बन्धप्रारम्भो नेति केषाञ्चित्पक्षं ज्ञापयति । नरा इति विशेषणं शेषगतिजानपाकरोति । विशिष्टप्रणिधानक्षयोपशमादिसामग्रीविशेषाभावात् । होता है, अपूर्वकरण आदिमें आयुका बन्ध नहीं होता । शेष प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अपनी अपनी बन्धव्युच्छित्तिपर्यन्त ही होता है || ९२ ॥ तीर्थंकर प्रकृति बन्धके विषय में विशेष नियम कहते हैं Jain Education International २० ३० प्रथमोपशम सम्यक्त्व में तथा शेष द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वमें असंयत से लेकर अप्रमत्तगुणस्थानपर्यन्त मनुष्य ही तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ करते हैं । वे भी प्रत्यक्ष साक्षात् केवली श्रुतकेवलोके चरणोंके निकट में ही करते हैं । यहाँ जो 'पढमुसमिए' इस प्रकार जुदी विभक्ति की है सो प्रथमोपशमसम्यक्त्वका काल थोड़ा अन्तर्मुहूर्तमात्र होनेसे षोडश कारण भावना भाना संभव नही है इसलिये उसमें तीर्थकरके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता ऐसा किन्हीं का पक्ष है' उसका ज्ञापन करनेके लिये की है । क - ९ For Private & Personal Use Only २५ www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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