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________________ १० कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ४४९ विवक्षितभवप्रथमसमयदोळे गत्यानुपूठायुरुदयः विवक्षितगतितदानुपूवळ तत्संबंध्यायुष्योदयं सपदे सशस्याने ओम्मोंदळेकजीवनोळुदयिसुगुम बुदथं । भूपूर्णबादरे आतपः पृथ्वीकायिकबादरपर्याप्तकजीवनोळ आतपनामकर्मोदयमकुं । उच्चोदयो नरदेवयोः उच्चैगर्गोत्रकर्मोदयं मनुष्यरोळं देवकळेनितुभेदमनितरोळमक्कुं। स्त्यानगृद्धित्रयोदयो नरे तिरश्चि स्त्यान गृद्धि निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचलावरणत्रयोदयं मनुष्यरोळं तिय्यंचरोळमुदयिसुगुमितरगतिद्वयदोळु- ५ दमिल्ले बुस्थ । अल्लियं : संखाउगणरतिरिये इंदियपज्जत्तगादु थीणतियं । जोग्गमुदेदु वज्जिय आहारविगुव्वणुठ्ठवगे ॥२८६॥ संख्यातायुनरतिरश्चोरिद्रियपर्याप्तस्तु स्त्यानगृद्धि त्रयं । योग्यमुदेतुं वज्जित्वाहार विकुर्वणोत्थापके ॥ तु मत्ते संख्यातवर्षायुष्यरप्प कर्मभूमिसंभूत मनुष्यतिथ्यचरुगळोळि द्रियपाप्तियिद मेले स्त्यानगृद्धि त्रयमुदयिसल्के योग्यमक्कुमल्लियं मनुष्यरोळुमाहारकऋद्धियुं वैक्रियिकऋद्धियुमिल्लदरोळे तदुदयमरियल्पडुगुं। अयदापुण्णे ण हि थी-संढो वि य धम्मणारयं मुच्चा । थीसंढयदे कमसो णाणुचऊ चरिमतिण्णाणू ।।२८७॥ असंयतापूर्णे न हि स्त्री, षंडोपि च धर्मनारकं मुक्त्वा । स्त्रीषंढाऽसंयते क्रमशो नानुसूयं चत्वारि चरम त्रीण्यानुपूाणि ॥ विवक्षितभवप्रथमसमये एव तद्गतितदानुपूर्व्यतदायुष्योदयः सपदे सदृशस्याने युगपदेवैकजीव उदेतीत्यर्थः । भूकायिकबादरपर्याप्ते एव आतपनामोदयः उच्च र्गोत्रोदयो मनुष्ये सर्वदेवभेदे च । स्त्यानगृद्धित्रयोदयो मनुष्ये तिरश्चि च नेतरत्रेत्यर्थः ।। २८५ ॥ तत्रापि तु पुनः संख्यातवर्षायुष्के कर्मभूमिमनुष्यतिरश्चि इंद्रियपर्याप्तरुपरि स्त्यानगृद्धित्रयमुदययोग्यं । तत्रापि मनुष्ये आहारकधिवैक्रियिकद्धर्यभावे एव ॥ २८६ ।। wwwwwwwwwwwwwwwwwnwuinnr विवक्षित भवके प्रथम समय में ही उस भव सम्बन्धी गति, आनुपूर्वी और आयका उदय एक साथ ही एक जीवके होता है और वह समान रूपसे होता है अर्थात् तीनों भी एक ही गति सम्बन्धी होते हैं। जिस गतिका उदय होगा उसी गति सम्बन्धी आयु और आन- २५ पूर्वीका भी उदय होगा। तथा बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीवके ही आतप नामकर्मका उदय होता है। उच्चगोत्रका उदय मनुष्य और सब प्रकारके देवों में होता है। स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्राओंका उदय मनुष्य और तिर्यंचों में होता है, अन्यत्र नहीं होता ॥२८५।। संख्यात वर्षकी आयवाले कर्मभूमिया मनुष्यों और तिर्यंचोंमें इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होनेके पश्चात् स्त्यानगृद्धि आदि तीन उदय होनेके योग्य हैं। किन्तु मनुष्यों में भी आहारक- ३० ऋद्धि और वैक्रियिकऋद्धिकी उत्थापना करनेके कालमें स्त्यानगुद्धि आदि तीनका उदय नहीं होता ॥२८६|| क-५७ २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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