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________________ ४५० गो० कर्मकाण्डे निवर्त्यपर्याप्तकनप्पऽसंयत सम्यग्दृष्टियोळु स्त्रीवेदोदयं न हि यिल्लेकेदोडा असंयतसम्यगदृष्टि स्त्रीयागि पुट्टनप्पुरिवंमत्तमपर्याप्तासंयतसम्यग्दष्टियोळ बंडोपि च न हि षंडवेदोदयमुमिल्लेके दोडातं षंडनागियुं पुट्टनप्पुरिंदमिदुत्सर्गविधियप्पुरिदं प्रारबद्धनरकायुष्यनप्प मनुष्य तिय्यंचाऽसंयतसम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वमं विराधिसद धर्म योनु नारकनागि पुटुगुमप्पुरिदमल्लिय ५ घमय नारकापर्याप्तासंयतसम्यग्दृष्टियं बिटु शेषापर्याप्तासंयतसम्यग्दृष्टिगळोळ एंडवेदोदयमिल्लदु कारणवागि स्त्रोवेदिगळं पंडवेदिगळुमप्पसंयतसम्यग्दृष्टिगळोळु यथाक्रमदिंदमानुपूर्व्यचतुष्टयमुमं नरकानुपूर्व्यमं कळेदु चरमानुपूठव्यंत्रितयमुमुदयमिललेके दोडानुपूर्यमुत्तरभवप्रथमसमयदोळुदयिसुगुमप्पुरिदमा कालदोळा स्त्रीवेदोदयमुं नपुंसकवेदोदयमुमुळळ जीवंगळु स्त्रीयु षंडरुमक्कुमप्पुरिदं ॥ इगिविंगलथावरचऊ तिरिये अपुण्णो णरे वि संघडणं । ओरालदु णरतिरिए वेगुव्वदु देवणेरइये ॥२८८॥ एकविकलं स्थावर चत्वारि तिरश्चि अपूर्ण नरे पि संहननमौदारिकद्वयं मरतिरश्चोव्व क्रि. यिकद्वयं देवनारकयोः॥ एकेंद्रियजातिनामकर्ममु द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियजातिनामत्रितय, स्थावरसूक्ष्मापर्याप्त१५ साधारणचतुष्कममें बो प्रकृतिगळुदयं तिर्यग्गतिजरप्प तिय्यचरोळे युदयिसुगुं। अपर्याप्तनाम कम्म मनुष्यगतिजरप्प मनुष्यरोळमुदयिसुगुं। संहननषट्कमुमौवारिकद्वयमुं मनुष्यरोळं तिय्यंचरोळमुदयिसुगुं । वैक्रियिकद्वयं सुररोळं नारकरोळमदयिसुगुं। निर्वृत्त्यपर्याप्तासंयते स्त्रीवेदोदयो नहि असंयतस्य स्त्रीत्वेनानुत्पत्तेः । षंढवेदोदयोऽपि च नहि पंढत्वेनापि तस्यानुत्सत्तेः । अयमुत्सर्गविधिः प्रारबद्धनरकायुस्तिर्यग्मनुष्ययोः सम्यक्त्वेन समं धर्मायामुत्पत्तिसंभवात् २० तेन असंयते स्त्रीवेदिनि चतुर्णा, षंढवेदिनि त्रयाणां चानुपूर्वीणां उदयो नास्ति ॥ २८७ ॥ एकद्वित्रिचतुरिंद्रियजातिनामकर्मस्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणानि तिर्यक्षु एव उदययोग्यानि अपर्याप्तमनुष्येऽपि । संहननषट् कमोदारिकद्वयं च तिर्यग्मनुष्येष्वेव । वैक्रियिकद्वयं सुरनारकेष्वेव ॥ २८८ ॥ नित्यपर्याप्तक असंयतमें स्त्रीवेदका उदय नहीं होता, क्योंकि असंयत सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्री पर्यायमें जन्म नहीं लेता। निवृत्यपर्याप्तक असंयतमें नपुंसक वेदका भी उदय २५ नहीं होता क्योंकि वह मरकर नपुंसक उत्पन्न नहीं होता। किन्तु यह उत्सर्ग विधि है। क्योंकि जिस मनुष्य या तियेचने पहले नरकायुका बन्ध किया है वह यदि सम्यक्त्व के साथ मरण करता है तो उसकी उत्पत्ति घर्मा नामक प्रथम नरकमें होती है। अतः असंयत स्त्रीवेदीके चारों आनुपूर्वीका और असंयत नपुंसकवेदीके नरक बिना तीन आनुपूर्वीका उदय नहीं होता ॥२८७|| एकेन्द्रिय, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जाति नामकर्म तथा स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण तिर्यंचोंमें ही उदय योग्य हैं। किन्तु अपर्याप्त प्रकृति मनुष्योंमें भी उदययोग्य है । छह संहनन, औदारिक शरीर और औदारिक अंगोपांग तिथंच और मनुष्यों में ही उदय योग्य है । तथा वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक अंगोपांग देवों और नारकोंमें ही उदय योग्य है ।।२८८।। ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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