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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका २६९ जगच्छेण्यसंख्येयभागंगळप्पुवु। वस्तुवृत्तियिदं हीनाधिक भावंगळप्पुवदेंतेंदोडे प्र गु १ प स्प ___aa इ गुप बंद लब्धमेकस्थानगतसर्वस्पद्धकंगळ प्रमाणमक्कु। =ad प मत्तं । प्र स्प aa aa -.- प १ । फ व । इस्प ३ प बंद लब्धमेकस्थानगतसर्ववर्गणाप्रमाणमक्कु aaaaa मत्तं । प्र aa स्प १ । फ। व इ। स्प। 2 a बंद लब्धमेकगुणहानिगतवर्गणाप्रमितमक्कु । यिल्लि गुणकारंगलं नोडलु भागहारमधिकंगळो समंगळो मेण होनंगळो येदितु विकल्पत्रयमं माडि श्रेण्य ५ संख्येयभागकथनान्यथानुपपत्तियत्तणिदं भागहारमं नोडलु गुणकारंगळसंख्यातगुणहीनंगळेदिती गाथासूत्रदिदमे यरियल्पडुवुवु । असंख्यलोकाः खल्वविभागाः एकस्थानगतसमस्ताविभागप्रतिच्छेदंगळमसंख्यातलोकप्रमितंगळेयप्पुवनंतंगळल्तु। कर्मपरमाणुगताविभागप्रतिच्छेदंगळुमनंतसंख्यासर्वनिकृष्टज्ञानाविभागप्रतिच्छेदंगळुवच्छिन्नंगळप्पुवी योगस्थानविषयदोळ कर्मादानजीवसर्वप्रदेशशक्तियसंख्यातलोकमात्रमेयक्कुमेंबुदाचार्य्यन हृद्गतार्थमक्कु॥ सामान्यालापेन भवति । वस्तुवृत्त्या तु हीनाधिक्यं भवति । तद्यथाप्र गु १ क प ० ० इ गुप लब्धमेकस्थानगतस्य स्पर्धकानि भवन्ति . प पुनः प्र aapa aa स्प फ १ व ३ इस्प __ प लब्धं एकस्थानगतसर्ववर्गणाप्रमाण भवति ._ _ प पुनः प्र aaaa aaaaa स्प १ फ व ३ ३ प ३३ लब्धं एकगुणहानिगतवर्गणा भवन्ति । अत्र गुणकारो भागहाराद्धीनोऽधिकः समो वा असंख्यातगुणहीनो ज्ञातव्यः, कुतः ? श्रेण्यसंख्येयभागस्य अन्यथानुपपत्तः । एकस्थानगतसमस्ताविभागप्रतिच्छेदाः खलु असंख्यातलोकप्रमिता एव, न कर्मपरमाणुवत् सर्वनिकृष्टज्ञानवद्वा अनंता वास्तव में परस्परमें हीन अधिक हैं। एक गुणहानिमें जो स्पर्धकोंका प्रमाण है उसको एक स्थानमें जो गुणहानिका प्रमाण है उससे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतने एक योगस्थानमें स्पर्धक होते हैं। तथा जो एक स्पर्धकमें वर्गणाओंका प्रमाण कहा है उसको, एक योगस्थानमें जो स्पर्धकोंका प्रमाण कहा है उससे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना एक योगस्थानमें २० वर्गणाओंका प्रमाण जानना। तथा एक स्पर्धक जो वर्गणाओंका प्रमाण जगतश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र कहा है उसको. एक गणहानिमें जो स्पर्धकोंका प्रमाण कहा है उससे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना एक गुणहानिमें वर्गणाओंका प्रमाण जानना । यहाँ गुणकारका प्रमाण जगतश्रेणिके भागहार के प्रमाणसे असंख्यातगुणा हीन जानना। ऐसा न होनेसे श्रणिका असंख्यातवाँ भाग सिद्ध नहीं हो सकता। इसीका नाम गुणहानि आयाम २५ है । सामान्यसे ये सब जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग हैं क्योंकि असंख्यातके भेद बहुत हैं। १. ब वषुवृद्धत्वा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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