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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १९५ अणथीणतिय मिच्छं मिच्छे अयदे हु बिदियकोहादी । देसे तदियकसाया संजमगुणपत्थिदे सोलं ॥१७१॥ अनन्तानुबंधिस्त्यानगृद्धित्रयं मिथ्यात्वं मिथ्यादृष्टौ असंयते खलु द्वितीयक्रोधादयः। देशवते तृतीयकषायः संयमगुणप्रस्थिते षोडश ॥ अनंतानुबंधिचतुष्कमुं स्त्यानगृद्धित्रयमुं मिथ्यात्वप्रकृतियुमेंब ८ अष्टप्रकृतिगळु संयमगुण- ५ प्रास्थितनप्प संयमगुणाभिमुखनप्प विशुद्धमिथ्यादृष्टियोळ जघन्यानुभागंगळप्पुवु। अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभंगळु ४ नाल्कु संयमाभिमुखनप्प विशुद्धासंयतनोळु जघन्यानुभागंगळप्पुवु । प्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोभंगळु ४ नाल्कुं संयमाभिमुखनप्प देशसंयतनोळु विशुद्धनोळु जघन्यानुभागंगळप्पुवु। अदरिनी षोडशप्रकृतिगळं संयमगुणप्रात्थितरोळे जघन्यानुभागंगळप्पुवेंदु पेठल्पदवु । अ ४ स्त्या ३ मि १ अ ४ प्र४॥ आहारमप्पमत्ते पमत्तसुद्धव अरदिसोगाणं । __णरतिरिये सुहुमतियं वियलं वेगुव्वछक्काऊ ॥१७२।। आहारमप्रमते प्रमत्तसुद्धे एवारतिशोकयोः। नरतिरश्चोः सूक्ष्मत्रयं विकलं धैगुवंषट्कमायुः॥ आहारकद्वयं प्रशस्तप्रकृतियप्पुरिदं प्रमत्तगुणाभिमुखसंक्लिष्टाप्रमत्तसंयतनोळु जघन्यानु- १५ भागमक्कुं। अरतिशोकद्वयमप्रशस्तप्रकृतियप्पुरिंदमप्रमत्तगुणाभिमुखविशुद्धप्रमत्तसंयतनोळ जघन्यानुभागमक्कुं। सूक्ष्मत्रय मुं विकलत्रयमुं वैक्रियिकषटकमुमायुश्चतुष्कमुमेंब १६ प्रकृतिगळ नरतिय्यंचरोळु जघन्यानुभागंगळप्पुवु । आ २।अ १। शो १ । सू३ । वि३। वे६ मा ४॥ अनन्तानुबन्धिनः स्त्यानगुद्धि त्रयं मिथ्यात्वं च मिथ्यादृष्टी, अप्रत्याख्यानकषायाः असंयते, प्रत्याख्यानकषायाः देशसंयते इतीमाः षोडशप्रकृतयः तत्र तत्र संयमगुणाभिमुखे एव विशुद्धजीवे जघन्यानुभागा २० भवन्ति ॥१७१॥ __ आहारकद्वयं प्रशस्तत्वात् प्रमत्तगुणाभिमुखसंक्लिष्टाप्रमत्ते जघन्यानुभागं भवति । अरतिशोको अप्रशस्तत्वात् अप्रमत्तगुणाभिमुखविशुद्धप्रमत्ते एव । सूक्ष्मत्रयं विकलत्रयं वैक्रियिकषटकं आयुश्चतुष्कं च नरतिरश्चोरेव ॥१७२॥ अनन्तानुबन्धी चार कषाय, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, और मिथ्यात्वका मिथ्यादृष्टिमें, २५ चार अप्रत्याख्यान कषायोंका असंयतमें, चार प्रत्याख्यान कषायोंका देशसंयतमें, इस प्रकार ये सोलह प्रकृतियाँ अपने-अपने गुणस्थानों में संयमगुण धारण करनेके अभिमुख विशुद्ध जीवके जघन्य अनुभाग सहित बंधती हैं ॥१७१।।। आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं। अतः इनका जघन्य अनुभागबन्ध प्रमत्तगुणस्थानके अभिमुख हुए संक्लेश परिणामवाले अप्रमत्त गुणस्थानवी ३० जीवके होता है । अरति और शोक अप्रशस्त प्रकृतियाँ है । अतः इनका जघन्य अनुभागबन्ध अप्रमत्त गुणस्थानके अभिमुख हुए विशुद्ध प्रमत्तगुणस्थानवी जीवके होता है। सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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